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हमारे कवि केदारनाथ सिंह अभी जीवित हैं मेहता( आलोक) साब !

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सत्ता और संपादक के बीच की विभाजन रेखा को लगातार मिटाने में सक्रिय रहे नेशनल दुनिया के प्रधान संपादक आलोक मेहता को शायद हमारे साहित्यकार-कवि-आलोचक कुछ ज्यादा ही खटकते हैं. नहीं तो क्या वजह थी कि उन्होंने अच्छे-खासे स्वस्थ कवि-आलोचक केदारनाथ सिंह को दिवंगत घोषित कर दिया. इतना ही नहीं, दिल्ली सरकार की ओर से छुट्टी की घोषणा भी करवा दी..आलोक मेहता ने पिछले दस सालों में पत्रकारिता के साथ जो कुछ भी किया है और उसे निजी स्वार्थ का जिस तरह से झुनझुना बनाने की कोशिश की है, समाचार4मीडियापर उनका परिचय पढ़कर घिन आने लगी. खैर,

मामला ये है कि बुधवार यानी 3 अक्टूबर को केदारनाथ साहनी की मौत हो गई. इससे संबंधित नेशनल दुनिया ने खबर प्रकाशित की- "पूर्व उपराज्यपाल केदारनाथ साहनी के निधन के शोक में दिल्ली सरकार ने अवकाश की घोषणा की है. दिल्ली सरकार के कार्यालय गुरुवार को बंद रहेंगे."....इस खबर के साथ अखबार ने केदारनाथ साहनी के बजाय कवि केदारनाथ सिंह की तस्वीर चिपका दी. तकनीकी रुप से देखें तो इसकी सफाई में अखबार के पास सीधा तर्क होगा कि ऐसी छोटी-मोटी गलतियां हो जाया करती है और इसके लिए सीधे-सीधे अखबार के प्रधान संपादक को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा. फिर ये खबर इतनी भी बड़ी नहीं कि उसमें प्रधान संपादक अतिरिक्त ध्यान दे. लेकिन

खबर प्रकाशित होने के बाद अगले दिन जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने अपनी फेसबुक दीवार पर स्टेटस अपडेट किया- 
कल भाजपा नेता केदारनाथ साहनी के निधन से संबंधित एक खबर के साथ दिल्ली से हाल ही शुरू हुए एक 'नेशनल' हिंदी दैनिक ने प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह का फोटो छाप दिया. ईश्वर कविश्री को लम्बी उम्र दे. उन्हें कोई फ़ोन आया तो उन्होंने कहा कि भूल हुई होगी, वे लोग कल सुधार लेंगे. लेकिन अख़बार में आज भी कोई भूल-सुधार नहीं छपा तो उन्हें हैरानी हुई. सज्जन कवि के साथ यह बर्ताव उचित नहीं. टाइम्स नाउ चैनल ने जस्टिस पी बी सावंत का फ़ोटो किन्हीं जस्टिस सामंत की जगह दिखा दिया तो श्री सावंत ने चैनल पर मुक़दमा कर दिया था और अदालत ने चैनल पर सौ करोड़ रुपये का ज़ुर्माना सुना दिया था. यह ठीक है कि केदारनाथ सिंह जस्टिस सावंत नहीं हैं, पर भूल-चूक अख़बारों पर हो या चैनलों से -- जो हो ही सकती है -- पर उसका फ़ौरन सखेद सुधार भी कर देना चाहिए."


इस स्टेटस पर पोस्ट लिखे जाने तक कुल 198 पसंद और 79 टिप्पणियां है. कुल कितने लोगों ने इसे पढ़ा होगा और इनमे से कितने लोगों का संबंध नेशनल दुनिया से हैं, इसका कोई आकलन हमारे पास नहीं भी है तो उम्मीद की जा सकती है कि ये बात नेशनल दुनिया तक जरुर पहुंची होगी. संभव है कि कुछ पाठकों ने व्यक्तिगत स्तर पर नेशनल दुनिया से संपर्क किया होगा. कायदे से अगले दिन तक अखबार को इस संबंध में खेद प्रकट कर देने चाहिए थे. लेकिन अखबार ने ऐसा नहीं किया और न ही आगे करने की जरुरत महसूस की. सोचनेवाली बात है कि अखबार के लिए मामूली गलती होते हुए भी साहित्यिक समाज के लिए कितनी बड़ी दुर्घटना है कि अपने समय के जरुरी हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह को एक अखबार ने दिवंगत घोषित कर दिया. खबर की लंबाई से कहीं अधिक बड़ी तस्वीर को देखकर कोई भी साहित्य का छात्र झटका खा जाएगा कि ये कब हुआ ?

कायदे से तो होना ये चाहिए था कि स्वयं आलोक मेहता इस संबंध में संपादकीय लिखते और हिन्दी समाज से इस बड़ी भूल के लिए माफी मांगते. उनका बहुत ही सम्मान से परिचय कराते जिससे कि जो लोग केदारनाथ सिंह के बारे में नहीं जानते हैं और बेहतर ढंग से जान पाते.  लेकिन आलोक मेहता और उनके अखबार ने ऐसा कुछ नहीं किया. क्या उन तक ये बात पहुंची नहीं होगी..अगर नहीं तो आप समझिए कि नेशनल दुनिया का तंत्र कितना लचर है या फिर आलोक मेहता की पाठकों पर पकड़ कितनी ढीली है कि कोई होश ही नहीं है ? लेकिन आलोक मेहता को इन सब की जानकारी होते हुए भी उन्होंने इस संबंध में कोई स्पष्टीकरण देना जरुरी नहीं समझा तो इसका मतलब है कि

वे साहित्यकारों के संबंध में ये मानकर चल रहे हैं कि वो उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते. उनकी इस गलती को लेकर गंभीर नहीं होंगे. ओम थानवी ने सही संदर्भ रखा है कि टाइम्स नाउ ने जस्टिस पी बी सावंत की जगह कोलकाता के न्यायाधीश जस्टिस बी.बी.सावंत की तस्वीर दिखाया था तो जस्टिस पी.बी.सावंत ने मान-हानि का मुकदमा दायर करते हुए सौ करोड़ रुपये की मांग की थी. हां ये जरुर है कि चैनल के मुखिया अर्णब गोस्वामी ने जिस तरह की हेकड़ी दिखायी थी, जस्टिस ने आजीज आकर ये काम किया था और अफसोस कि अर्णव गोस्वामी ने उनसे यहां तक झूठ बोला था कि मेरा ऑपरेशन हुआ है और मैं पुणे नहीं आ सकता जबकि उस समय में लगातार अपना शो कर रहे थे. तो भी ये सवाल तो जरुर है कि अगर केदारनाथ सिंह की जगह कोई जीवित न्यायाधीश,ब्यूरोक्रेट, मंत्री,कार्पोरेट की तस्वीर दिवगंत बताकर छाप दी जाती तो आलोक मेहता इतने ही लापरवाह बने रहते या फिर माफीनामा की झड़ी लगा देते और अगर जरुरत पड़ती तो उनके चरणों पर लोटते तक लग जाते ?

नेशनल दुनिया और आलोक मेहता ने इस पूरे मामले में जिस तरह का रवैया अपनाया है, वो किसी एक साहित्यकार भर का मामला नहीं है बल्कि साहित्यिक समाज को निरीह और कमतर करके देखने का मामला है. वो ये मानकर चल रहे हैं कि उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा और इस हद तक दवाब नहीं बना सकेगा कि वो केदारनाथ सिंह से माफी मांगे. अखबार में स्पष्टीकरण दे और दोबारा केदारनाथ साहनी की तस्वीर के साथ इस खबर को छापे.

वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय हिन्दी समाज इस बात से खुश हो सकता है कि जब नेशनल दुनिया के मीडियाकर्मी ने गूगल इमेज पर केदारनाथ साहनी टाइप किया होगा तो उनकी तस्वीर मिलने से पहले कवि केदारनाथ सिंह की तस्वीर मिली होगी..यानी गूगल केदारनाथ सिंह को ज्यादा लोकप्रिय मानता है..लेकिन इस खुश होने के पहले इस अफसोस को भी समझने की जरुरत है कि एक हिन्दी अखबार को ये भी नहीं पता है कि केदारनाथ सिंह कौन है और केदारनाथ साहनी कौन थे ? हिन्दी अखबारों में साहित्य को कितनी गंभीरता से लिया जाता है और उसके लिए कितनी जगह है, फिलहाल इस बहस में न भी जाएं तो इतना तो तय है कि उसके भीतर एक ऐसी दुनिया तेजी से पनप रही है जो कि साहित्य विरोधी है. अखबार और आलोक मेहता का रवैया इसी साहित्य विरोधी माहौल की ओर संकेत करता है.

ये तय है कि आलोक मेहता के चाहने और खटकने से न तो किसी साहित्यकार का कुछ होने जा रहा है और न ही उनके लिए जगह नहीं दिए जाने से पढ़नेवाले लोग उन्हें पढ़ना छोड़ देगें..लेकिन हिन्दी समाज को अखबार की इस मक्कारी,ढिठई और रंगबाज रवैये को चटकाना जरुरी है. जो हिन्दी समाज शाल,बुके और पत्र-पुष्प दे देकर साहित्यकारों को सम्मानित करने का पाखंड रचता है, उन्हें इसके लिए सक्रिय होने की जरुरत है. उन्हें इस बात का अहसास कराना जरुरी है कि बिल्डर,दलाल,कार्पोरेट किसी एक-दो की इच्छा से अस्वाभाविक मौत मरते हैं, केदारनाथ सिंह साहित्यकारों की मौत अपने स्वाभाविक तरीके से ही होती है और इस स्वाभाविकता के साथ खेलने का हक आलोक मेहता,उनके अखबार या किसी और को नहीं है. 

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