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Channel: हुंकार
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आपके विमर्श का हिस्सा क्यों नहीं हैं डॉ श्याम रुद्र पाठक ?

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हिन्दी के नाम पर जो मठाधीश आए दिन दालमखनी बनाते फिरते हैं, हिन्दी दिवस के मौके पर सेल अप टू फिफ्टी पर्सेंट से भी बड़े बैनकर के तले बैठकर इसके प्रसार के बजाय इसके गायब होने, अशुद्ध हो जाने का मातम मनाते हैं, छाती कूटते हैं..डॉ. श्याम रुद्र पाठक भारतीय भाषा को लेकर लगातार सक्रिय रहने,अनशन करने, गिरफ्तारी और प्रशासन के रवैये के प्रति ऐसे अंजान बने फिर रहे हैं जैसे कि ये उनके हिस्से का मुद्दा नहीं है..वैसे तो हिन्दी के मठाधीश मुनिरका से लेकर अमेरिका, टिंडा से लेकर भटिंडा तक सारे विषयों पर अपनी दखल और दक्षता रखते हैं लेकिन पाठक के साथ पिछले कुछ महीने से जुल्म ढाहे जा रहे हैं, उस पर कहीं कोई चर्चा नहीं. मुझे गैंग्स ऑफ बासेपुर का एक डायलॉग याद आता है- तुमलोग खा कैसे लेते हो..भूख कैसे लग जाती है ?

डॉ. श्याम रुद्र पाठक भारतीय की तमाम भाषाओं को लेकर अपनी जो भी मांग कर रहे हैं और जिसके लिए महीनों से अनशन करते आए हैं, संभव है कि भाषा के प्रति उनकी समझ से अपनी असहमति हो सकती है लेकिन क्या इस सवाल पर बात नहीं होनी चाहिए कि पाठक की मांग को लेकर वही सरकार इतनी क्रूर क्यों है जो कि अब से एक महीने बाद उसी के नाम पर लाखों रुपये लुटाने जा रही है ? आपको चौक-चौराहे की भीड़ और शोर से एलर्जी है, तापमान के बीच अपनी बात रखने की आदत नहीं है..आपसे कोई कुछ ये सब करने नहीं कह रहा लेकिन एक काम तो आपके हाथ में है ही न कि आप पाठक के भाषा को लेकर किए जा रहे इस आंदोलन को अपने विमर्श के दायरे में शामिल करें, उसे बहस और विचार का मुद्दा बनाएं. कोई आपको उनका कार्यकर्ता और पिछलग्गू बनने नहीं कह रहा लेकिन हिन्दी समाज के बीच इस भावना का प्रसार तो कर ही सकते हैं कि एक शख्स है जो अपनी तमाम बेहतरीन जिंदगी और सुख-सुविधा की संभावना के रहते हुए भी एक ऐसे मुद्दे पर लड़ रहा है जिसकी मोटी कमाई हिन्दी पब्लिक स्फीयर हम खाते आए हैं.. हिन्दी के बाहर के लेखकों,चिंतकों को पढ़ते हुए अक्सर प्रभावित होता हूं लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कहीं न कहीं ये भाव काम कर रहा होता है कि मैं जो ये सब कर रहा हूं, उससे हिन्दी की दुनिया में विमर्श का दायरा बढ़ रहा है या नहीं..ऐसे में पाठक साहब ने एक पहल की है तो उससे पूरी तरह निस्संग रह जाना मुझे कम से कम रचनात्मकता और प्रतिरोध की जमीन बचाए रखने के लिहाज से बहुत ही घटिया हरकत लगती है.

हिन्दी समाज में आप चाहे कुछ भी कर लें, बहुत थोड़े वक्त में ही मुद्दे गायब होकर व्यक्ति आधारित आक्षेप और असहमति का दौर शुरु हो जाता है और ऐसा इसलिए भी कि न दिखने के बावजूद यहां गुर्गेबाजी चलती है..लेकिन डॉ पाठक के संदर्भ में हालांकि ये उनका संदर्भ न कहकर भारतीय भाषा का संदर्भ कहा जाना चाहिए तो ये तो आपकी बड़ी सुविधा है कि वो ऐसे किसी गुर्गेबाजी से नहीं आते, फिर भी...कहीं ऐसा तो नहीं कि रचना के व्यक्तित्व और कृतित्व को दो अलग दुनिया माननेवाले लोग मुद्दे पर लिखने औऱ मुद्दे के लिए लगातार लड़ते रहने को भी दो अलग दुनिया मानते हैं और वो पाठक पर तभी चर्चा करेंगे जब वो भारतीय भाषा को लेकर चार खंड़ों में अपनी रचना प्रकाशित करवाएंगे या फिर अभी जो कुछ भी उनके साथ हो रहा है, उसके रचना की शक्ल में टेबुल पर आने तक का इंतजार करेंगे.

इधर फैशन और आयोजन के स्तर पर ही सही,देखता हूं कि लोग खालिस हिन्दी की बात न करके देश की दूसरी भाषाओं को भी शामिल कर रहे हैं. कभी-कभार में अशोक वाजपेयी भी बांग्ला,तमिल,तेलगू...के रचनाकारों की चर्चा करते हैं और आयोजनों में शामिल होते हैं लेकिन आयोजन से थोड़ा हटकर जैसे ही ये मामला सड़कों पर आकर करने और उसके लिए आवाज उठाने पर आती है, एक गहरी चुप्पी चारो तरफ पसरी है. हम इस संदर्भ ये बिल्कुल नहीं चाहते कि पाठक को प्रतीक पुरुष बनाकर स्थापित किया जाए, पूजा जाए लेकिन भारतीय भाषाओं का जो संदर्भ अभी तक आयोजनों में शामिल रहा है, उसे एक लंबे विमर्श का हिस्सो बनाया ही जा सकता है..लोगों को ये तो बताया ही जा सकता है कि क्योंकि एक भाषा के एकाधिकार के बजाय छोटी-छोटी कई औऱ तमाम भाषाओं का मौजूद रहना, हमारे रोजमर्रा के कामकाज में बने रहना जरुरी है.

माफ कीजिएगा, फिलहाल डॉ. श्याम रुद्र पाठक की सहमति,सहयोग और उनके पक्ष पर बात करने की जो भी कोशिशें हुई है, उसका एक सिरा उन्हें महज हिन्दी से जोड़कर देखे जाने के रुप में है जबकि वो तमाम भारतीय भाषाओं के संदर्भ में बात कर रहे हैं. ऐसे में सद्इच्छा के बावजूद इस बात का खास ख्याल रखना बेहद जरुरी है कि वो सिर्फ और सिर्फ हिन्दी की बात नहीं कर रहे हैं. सिर्फ हिन्दी तक सीमित करना एक नए किस्म के मठाधीशी चश्मे से चीजों को देखना और उनकी इस कोशिश को रिड्यूस कर देना है.

हम आप हिन्दी के महंतों से सिर्फ इतनी ही अपील करते हैं कि या तो उनकी इन कोशिशों और उनके साथ हो रही यातना को विमर्श के केन्द्र में लाएं या फिर इतनी बेशर्मी पैदा करें कि हिन्दी दिवस तक आते-आते हिन्दी के नाम का लिफाफा लेते वक्त आपके हाथ न कांपने पाए.

तस्वीरः साभार,संजीव सिन्हा एवं अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल

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