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Channel: हुंकार
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सवाल सिर्फ कांग्रेस को कसंग्रेस यानी गलत लिखने का नहीं है.

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इंदौर शहर में राहुल गांधी की रैली में कांग्रेस की जगह कसंग्रेस के लिखे जाने को लेकर न्यूज चैनलों में खूब फुटेज काटे-चिपकाए जा रहे हैं. चैनलों का मुद्दा गाहे-बगाहे फेसबुक वॉल पर आ ही जाते हैं और हम भी इन मुद्दों को खूब शह देते हैं. लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं है कि जितनी देर रैली चली क्या उतनी देर तक देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के गलत लिखे नाम को देश के दर्जनों चैनलों ने विजुअलर्स काटे या फिर सवाल ये भी है कि आखिर ऐसी गलतियां किस कोख से पैदा होती हैं..क्या ये राजनीति में तेजी से भाषागत लापरवाही और पढ़ने-लिखने की दुनिया के प्रति यकीन के खत्म हो जाने का तो नहीं. बैनर-पोस्टर बनवाते वक्त ऐसे ही कुछ अनुभव रहे जिन्हें आप सबसे साझा करना जरुरी लगा- 

आप पोस्टर-बैनर-किऑस्क बनवाने कभी घंटाघर, बल्लीमारान या अपने शहर की ऐसी किसी जगह पर गए हैं जहां अलग-अलग राजनीतिक पार्टी के लोग भी होली-दीवाली-लोहड़ी-ईद की मुबारकबाद हेतु पोस्टर-बैनर बनवाने हेतु पाए जाते हैं..जाहिर है कि इस काम के लिए कोई शीर्ष के नेता नहीं होते, पार्टी के वो छुटभैय्ये लोग जिन्हें शुरु से इस बात पर यकीन रहा है कि नेतागिरी झाड़ने के लिए क्लासरुम को जितनी जल्दी हो, तलाक दे दो. नतीजा हिन्दी की क्लास में राजनीति विज्ञान के मास्टर की टीटीएम करते रहे होंगे, राजनीति विज्ञान की क्लास में हिन्दी के मास्टर की चरण वंदना.

अब देखिए, फजीहत कैसे शुरु होती है, आंखोंदेखी हाल बता रहा हूं. नवरात्रा से लेकर छठ पूजा तक रेलसाइज में बधाई देते हुए शहादरा से लेकर बडोदरा तक के अपनी पार्टी के नेताओं की अंडानुमा खांचे में पासपोर्ट साइज फोटो लगाते हुए, नीचे परिचय देते हुए, पार्टी लोगों,छातीकूट नारे डालते हुए, दिनांक, दिन,साल-सवंत शामिल करते हुए, मौजूदा आकाओं से लेकर पूर्वजों तक को याद करते हुए एक बैनर बनवानी है..अब इस छुटभैय्ये नेताओं की परेशानी कई स्तरों पर होती है.

अव्वल तो ये कि अपनी पार्टी के दो-तीन उपर के और दो-तीन घुटने के लोगों को छोड़कर बाकी लोगों की तस्वीर पहचान ही नहीं पाते. ऐसे में वो गूगल इमेज का सहारा लेते हैं. अब गोया टाइप किया अपनी पार्टी के मुसद्दीलाल को तो एक दर्जन मुसद्दीलाल की तस्वीर है..चाबड़ी बाजार में गत्ते बेचनेवाले से लेकर सिनेमाहॉल के मैनेजर तक. किसको लगाए. माने किसकी तस्वीर लगाए. परेशान होकर बार-बार फोन करता है, फोन लगने में देर होती है तो क़ॉमिक रिलीफ के लिए बैन के लं, बैन की लौ, मां की..अब किसको लगाउं.

इधर पार्टी के पूर्वजों को शामिल करने, कब्जाने कहिए तो इतनी आपाधापी मची है कि जिस स्वतंत्रता सेनानी या संस्कृतिवाहक को अमूक पार्टी शामिल करती थी, अब उसके तीन क्लाएंट पैदा हो गए हैं. गोकि ध्यान ये रखना है कि किसकी कैसी पोज अपनी पार्टी के काम की है. एक पूर्वज अगर कभी हंसिया भी उठाया हो और गीता भी तो कौन सी वाली तस्वीर जानी है, पता नहीं है क्योंकि विचारधारा समझने-समझाने वक्त तो ये क्लासऱुम को तलाक देकर बत्ती बनाने चले गए थे.

दूसरी समस्या आती है स्लोगन लगाने की..इसमे भी ऐसा पेंच हुआ है कि पहले प्रतिरोध, अधिकार,क्रांति, राष्ट्र, मानवता कई ऐसे शब्द थे जो किसी पर्टीकुलर पार्टी को लेकर पेटेंट टाइप से हुआ करते थे तो थोड़ी सुविधा थी..अब तो चाइनिज फूड की तरह सबमे सब शब्द मिक्स है..अब बंदे को स्लोगन लगवाने में भारी फजीहत होती है..खैर, बैन, मां के अखंड जाप के बीच ये लग भी गया तो अब बारी आती है नाम सही-सही लिखने और हर शब्द में दो से तीन से ज्यादा गलतियां न रहने देने की..दो-तीन तो समझ और नजर ही नहीं आने हैं.

गाली-गलौच करते हुए आखिर में बैनर स्क्रीन पर कंपोज हो गया, मतलब छुटभैय्ये की तरफ से मामला डन. ऐसा कई बार हुआ है कि छुटभैय्ये ने जोर से कहा है- चलो जी, अब इसकी बीस बैनर प्रिंट निकाल दो और मैं अपने काम की जल्दी और हड़बड़ी के बीच भी उनकी स्क्रीन पर नजर मारता हूं और अमूमन चौड़ी देह-दशावाले इन छुटभैय्ये से धीमी आवाज में कहता हूं- भैय्या, अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक बार आप जो बैनर निकलवा रहे हैं, देख लूं. मेरी हिन्दी भी कोई खास और दुरुस्त नहीं लेकिन सरकार का लाखों रुपया इसी भाषा के नाम पर पेट में गया है तो पता नहीं क्यों एक किस्म का नैतिक दवाब और भावनात्मक लगाव तो महसूस करता ही हूं..अक्सर वो मना नहीं करते और अपनी तरफ से जितना बन पड़ता है, मैं वर्तनी ठीक कर देता हूं. वो फटाफट ठीक करते देखते रहते हैं और आखिर तक आते-आते श्रद्धाभाव से भावुक हो जाते हैं. धीरे-धीरे उनके भारी-भरकम देह-दशा के प्रति मेरा भय जाता रहता है. ओजी, आप करते क्या हो, ये पूछकर शुक्रिया अदा करते हैं और एकाध बार तो सौ-दो सौ रुपये या फिर मेरे बैनर के भी पैसे उसी में ही काट लेने की घटना घटी है. मेरे मना करने पर अपनी विजिटिंग कार्ड पकड़ा जाते हैं और फिर अपनी ठसक में कहते हैं- सरजी, चन्द्रावलनगर में कोई यूं छू भी दे आपको तो बताना, बैन की ऐसा टाइट करुंगा कि आप भी याद करोगे..मैं जरुर-जरुर कहकर विदा देता हूं.

दो-चार बार ऐसा भी हुआ है कि मैं एकदम से ऐन वक्त पर तब पहुंचता हूं जब इन छुटभैय्ये नेताओं ने बैनर छपवा लिए होते हैं और खोलकर उसकी साइज और फ्रेम देख रहे होते हैं..मुझसे रहा नहीं जाता और कहता हूं- ये आपने स्वतंत्रता ऐसे क्यों लिखा है, वो मेरी तरफ घूरते हैं..मैं अपना वाक्य दुरुस्त करता हूं- आपने स्वतंत्रता ऐसे क्यों छपवाए..तब उनकी देह भाषा बदल जाती है...बैन चो..ये टाइपिस्टवाले ने रेड पीट दी है..अबे ओए, मादरचो, स्साले बेइज्जती कराता है, ऐसे ही लिखते हैं स्वतंत्रता..

इधर स्क्रीन पर ठीक करवाने और छपे की गलती पकड़ने, दोनों ही स्थिति में दूकानदार मुझे दमभर कोसता है..आपने दोबारा ठीक करवाया, आपका क्या जाता है..आपको पता है, इतनी देर में मैं तीन बैनर का काम कर लेता..या फिर जब छप गया था तो आपको बोलने की क्या जरुरत थी, अब ये नया छापने कह रहा है..आपका क्या जाता है..जब वो झल्लाकर और बेहद ही तीखे अंदाज में मुझे ऐसा कहता है तो मैं बेहद भावुक हो जाता हूं- तुम नए वाले बैनर के पैसे मुझे ले लेना. मुझे हिन्दी में मिले जेआरएफ कन्टीजेंसी के पैसे का ध्यान आता है..कितना- आठ सौ..ये तो एक महीने की भी नहीं है..हम हिन्दी सिर्फ पढ़ने पर ही क्यों, दुरुस्त करवाने पर भी तो कुछ खर्च कर ही सकते हैं.

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