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Channel: हुंकार
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चलो बाजार कफ़न खरीदने, कल हिन्दी दिवस है(1)

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आपको सोचकर कभी हैरानी नहीं होती कि जो हिन्दी समाज अपने स्वभाव और चरित्र से उत्सवधर्मी रहा है, हिन्दी दिवस के मौके पर इतना मातमी क्यों हो जाता है ? सालभर तक हिन्दी की रोटी/ बोटी खाने-चूसनेवाले मूर्धन्य साहित्यकार हिन्दी दिवस के मौके पर सभागार में घुसते ही ऐसी शक्ल बना लेते हैं जैसे निगम बोध घाट पर किसी कालजयी का दाह-संस्कार करके लौटे हैं. उनके माथे पर चिंता की रेखाएं कुछ इस तरह खींची रहती है कि जैसे किसी बच्चे ने बहुत ही बर्बर तरीके से अपनी मां की आइलाइनर बर्बर तरीके से चला दी हो..हाय हमारी हिन्दी मर रही है, कुछ सालों की मेहमान है, यही हाल रहा तो लोग खोजते नहीं मिलेंगे कि इसकी संतानें कहां गई ?

 आपको कभी साहित्यकारों के इस रवैये पर खुन्नस नहीं आती. साहित्यकार तो छोड़िए हिन्दी विभाग के उजाड़ मल्टीप्लेक्स में रहते हुए भी हजारों-लाखों में तनख्वाह पानेवाले उन हिन्दी अफसरशाहों के प्रति जो या तो विभागाध्यक्ष है, या तो डॉक्टर साहेब है, या तो टीचर इन्चार्ज है, सीनियर मोस्ट है, सुपरवाइजर है, गाइड है या कमेटी का अध्यक्ष है. कोरा हिन्दी का प्राध्यापक नहीं है जिसका काम हिन्दी का प्रसार करना, विस्तार देना है. प्रूफ रीडिंग,टाइपिंग, अनुवाद में दिन-रात सिर कूटनेवाले हिन्दी की दुर्दशा पर किलसते हैं तो बात फिर भी समझ आती है लेकिन जो इसी हिन्दी से दुनिया के वो तमाम ऐशोआराम की चीजें जुटा ले रहे हैं जिसके लिए अगर वीपीओ और मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करें तो सतरह से अठारह घंटे तक इस कदर काम करनी पड़े कि हिन्दी क्या अपनी ही दशा-दुर्दशा पर रोने-बिलखने का समय न मिल पाए. आपको नहीं लगता कि हिन्दी का बाजार तभी तक है, जब तक इसमे रोने-कलपने,चीखने-चिल्लाने,आंसू बहाने,हर बदलाव को नकारने और मानव विरोधी करार देने की गुंजाईश है. हिन्दी में कुछ लिखा-पढ़ा जाता रहे इसके लिए जरुरी है कि देश में बददस्तूर गरीबी,लाचारी,भूखमरी बनी रहे. जब समाज से कच्चा माल ही नहीं रहेगा जिससे कि हमारी भावनाएं जागृत होती है, हमारे भीतर की जमी हुई संवेदना पिघलती है तो फिर लिखना-बोलना कैसे संभव हो सकेगा ? ऐसे में ये सबकुछ हिन्दी समाज के लिए समस्या कम, रचना के उपादान ज्यादा हैं.

आप किसी भी हिन्दी के सेमिनार में चले जाइए, बातचीत की शुरुआत ही बाजार के विरोध से होती है. समस्या के केन्द्र में एक ऐसा बाजार होता है, जिसे कि उखाड़ फेंकने के साथ ही सारी चीजें अपने आप दुरुस्त हो जाएगी. इस बाजार ने ही एक ही साथ हिन्दी, साहित्य और साहित्यकारों का जीना हराम कर दिया है और तिल-तिलकर मारता जा रहा है. अगर बाजार इतना ही खराब है, गैरमानवीय है तो हिन्दी समाज ने उससे विलग होने के लिए किस स्तर के प्रयत्न किए हैं ? जहां-तहां बाजार से प्रभावित हुए बिना अगर सादगी को थोड़े वक्त के लिए ढोया भी है तो वो वैचारिक समझ का हिस्सा है या फिर अभाव का क्रंदन, समझना मुश्किल नहीं होता. अगर ऐसा नहीं है तो फिर प्रत्येक हिन्दीसेवी और हिन्दीप्रेमी का साल-दर-साल के भीतर उसी तरह से मेकओवर कैसे हो जाता है जैसे कि मार्केटिंग और मैनेजमेंट में तरक्की पानेवाले कर्मचारी का. इस हिन्दी प्रेमी के लिए भी आखिर तरक्की औऱ विकास का पैमाना भी वही सबकुछ क्यों है जो किसी दूसरे धंधे में लगे लोगों के लिए होते हैं और जिसका नियामक बाजार है. बाजार की गोद में गिरे बिना न तो हुलिए में बदलाव संभव हो पाता है और न ही समृद्ध कहलाने के स्टीगर उन पर लग पाते हैं.

हम ये बिल्कुल भी नहीं कहते कि जो हिन्दी के काम में किसी न किसी रुप में लगा है, वो अतिरिक्त नैतिकता के बीच दबे-फंसे रहकर फटेहाल बना रहे. दुनिया की उन सारी चीजों का परित्याग कर दे जिसका संबंध भौतिक सुख से है. एक तो ऐसा करने की न तो जरुरत है और न ही चाहकर कर सकता है. सेमिनारों और कक्षाओं में भले ही बाजार के विरोध में घुट्टी पिलायी जाती रही हो लेकिन आसपास का जो परिवेश बनता है, जिस माहौल में बाजार के विरोध में बतायी-समझायी जाती है, उसकी अंडरटोन भी यही होती है कि बाजार के विरोध में भी आप तभी बात कर सकते हो जब आपने बाजार को साध लिया है या फिर बाजार ने आपको अपनाया लिया है. बाजारविरोधी बयान भी वही बुद्धिजीवी और साहित्यकार जारी करते हैं जो बाजार के दुलरुआ हैं.

यहां बाजार का मतलब लक्स,निरमा, कामसूत्र,हन्ड्रेड पायपर्स और स्कोडा की खरीद-बिक्री होनेवाली जगह भर से नहीं है. उन सभाओं,संगोष्ठियों और कक्षाओं से भी है बल्कि ज्यादा उसी से है जहां विचारों की दुकानें सजती है. जहां इन सबके विरोध में बोलना एक सांस्कृतिक उत्पाद भर है जिसकी गुणवत्ता ग्रहण करने या जीवन में शामिल करने से नहीं "परफार्म " करने भर से है. ऐसे भाषण और व्याख्यायान सहित कोई एक ऐसी चीज होती है जिसका संबंध बाजार से अपनी असहमति जताते हुए उससे अलग खड़े होकर जीने से होती है ? अव्वल तो जब हम सीधे बाजार का विरोध करते हैं तो जरुरत और हावी होने के लिए उपभोग करने के फर्क को खत्म कर देते हैं और दूसरा कि हम इतिहास की व्यावहारिक सच्चाई से काटकर एक यूटोपिया रचने की कोशिश में लग जाते हैं और ये सबकुछ जाहिर है परफार्म करने के स्तर पर ही. कुछ समझदार से दिखनेवाले साहित्यकार/आलोचक इसके लिए बाजार के साथ वाद जोड़ देते हैं और सुधारकर कहते हैं, हम बाजार नहीं बाजारवाद का विरोध करते हैं. ये अलग बात है कि ऐसा करने से भी हिन्दी समाज के बीच बन रहे परिवेश में कुछ खास फर्क नहीं पड़ता.

बाजार को एक हअुआ की तरह खड़ा करके हिन्दी और साहित्य की पूरी बातचीत को उसमें डायल्यूट कर देना फिर भी बहुत ही आसान तरीका है जबकि सुनने और उससे गुजरनेवाला शख्स ये समझ रहा होता है कि ऐसे सेमिनारों और लेखों का जीवन के धरातल पर कोई गंभीर अर्थ नहीं रह जाता. शायद यही कारण है कि बीए प्रथम वर्ष के हिन्दी छात्र तक को ये समझने में मुश्किल नहीं होती कि उसे साहित्य पढ़कर करना क्या है ? हिन्दी विभाग के जिन खादानों में वो सात साल-आठ साल चीजों को कोड़-कोड़कर शोध प्रपत्र और लेख लिखता है, वो जानता है कि इसका बाजार कहां है और क्या कैसे करना है ? ऐसे में हिन्दी भाषा में लिखी गई सामग्री का बड़ा हिस्सा विश्वसनीय नहीं रह जाता. बड़ी सामग्री जिनमे से कि महान और कालजयी जैसे शब्दों से अलंकृत भी है, उसकी कोई साख नहीं रह जाती. हिन्दी का रोना अगर आप रोते हैं तो भाषाई स्तर पर उसके भ्रष्ट और खत्म होने का रोने के बजाय इस बात पर रोइए कि भाषाई शुद्धता और व्याकरणिक प्रांजलता के बावजूद समाज के बीच उसकी पकड़ क्यों नहीं है ? मेरे ख्याल से इसमें साख का सवाल अनिवार्य रुप से जुड़ा है. साहित्यकारों की छोटी-छोटी क्षुद्रता, देशभर में सरकारी,अर्धसरकारी हिन्दी अधिकारियों के धत्तकर्मों ने इस हिन्दी को जितना कमजोर और लिजलिजा किया है, उतना व्याकरणिक दोष से अटे पड़े वाक्यों ने नहीं और न ही सतही और स्तरहीन लेखन ने.

दूसरा कि हिन्दी का एक बड़ा कोना है जहां सीधे-सीधे बाजार नहीं है लेकिन वहां भी कुछ कमाल का नहीं हो रहा है ? साहित्य अकादमी, हिन्दी अकादमी, राज्य स्तर की अकादमियां, हिन्दी संरक्षण के लिए देशभर में फैले सैंकड़ों संस्थान क्या सीधे-सीधे बाजार की मार के शिकार हैं. साहित्य अकादमी क्या उन प्रकाशकों और वितरकों के अधीन है जो बाजार में किताब पहुंचाएंगे तो उनकी किताबें बिकेंगी, साहित्यकारों के प्रति माहौल बनेगा और नहीं तो सड़ता रह जाएगा. ये सब एक जमाने में मजबूत संस्थाएं रही थी और सिर्फ प्रकाशन के स्तर पर नहीं, वितरण और लोकप्रियता के स्तर पर भी. इसे कुछ मठाधीशों ने जान-बूझकर अपने तात्कालिक सुख और स्वार्थ के लिए खत्म किया. जब तक संभावना रही और अब भी थोड़ी बची है, लूटते हैं और जब बहुत अधिक गुंजाईश नहीं बचती है तो फिर बाजार का हअुआ खड़ी कर देते हैं. साहित्य अकादमी और हिन्दी अकादमी के पास करोड़ों रुपये की बजट होती है जिससे कि हिन्दी को भाषा के स्तर पर ही नहीं बल्कि उसके जरिए सामाजिक प्रक्रिया को हिन्दी सहित देश की दूसरी भाषाओं के जरिए व्यक्त किया जा सके लेकिन क्या ऐसा हो पाता है ? निजी प्रकाशकों सहित बाजार के दूसरे अवयवों का दवाब होता है और ये इन संस्थानों को पटकनी देने की कोशिश में लगे रहते हैं, ठीक बात है..लेकिन क्या कभी ऐसी संस्थाएं पलटकर अपने को तैयार कर पाती है ? सारी कवायदें शाल और कुछ लाख रुपये सहित अदना कांसे पीतल,तांबे के मिलनेवाले पुरस्कारों के पीछे की राजनीति में उलझकर रह जाती है. वही युवा रचनाकार बेहतर है जिनमें चेले-चमचे-चपाटी बनने के नैसर्गिक गुण मौजूद हैं.

आप देशभर के किसी कॉलेज में चले जाइए और हिन्दी विभाग के बारे में बात कीजिए. संभव है कि अब यहां लोग मल्टी-डिसीप्लीन, विमर्श और दुनिया-जहान की बातें करने लगे हैं जिससे कि हिन्दी मतलब सिर्फ कविता-कहानी-हवा-हवा-धुआं-धुआं है का मुल्लमा छूट रहा है लेकिन इसके साथ ही इसकी जो मजबूत छवि बन रही है वो ये कि यहां सिर्फ और सिर्फ चेला-चमचा संस्कृति है, बीए-एम के तक अभिव्यक्ति की आजादी की घुट्टी पिलायी जाती है और फिर उस घुट्टी को दास मानसिकता में बदल जाने के लिए घसीटा जाता है. आप हिन्दी पर बात करते हुए इससे संबद्ध संस्थानों,विभागों और लाभ के पदों को छोड़कर बात कर ही नहीं सकते क्योंकि हर कोई भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के योगदान और मुक्तिबोध की सभ्यता समीक्षा के जरिए हिन्दी को नहीं जा रहा होता है. वो हमारे-आपके जैसे हिन्दी सपूतों और वयोवृद्ध महंतों के जरिए ही राय कायम करता है.

आप कुछ मत कीजिए, सिर्फ एक सूची बनाइए कि सालभर में हिन्दी के प्रसार के नाम पर सरकारी, अर्धसरकारी और दूसरे संगठनों के जरिए कितने करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं और उन खर्चे से क्या फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आती है. आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये चंद लोगों की ऐशगाह बनकर रह जाता है. ऐसे चंद लोगों के लिए हिन्दी एक भाषा नहीं ऐशगाह है जो 364 दिनों तक इसे नोचने-खसोटने के काम आते हैं और एक दिन पूरी दुनिया को उघाड़कर दिखाने के कि देखो इस भाषा की क्या हालत हुई है ? मेरे ख्याल से कम से कम शर्म न सही नहीं लेकिन इतनी अक्लमंदी तो दिखानी ही चाहिए कि अपने ही हाथों से नोची-खसोटी गई हिन्दी के घाव "हिन्दी दिवस" के मौके पर दिखाने बंद कर दें.कुछ न हो तो इस दिन सभागार में घुसने से पहले एक कफन लेकर पहुंचें जिसकी कीमत सम्मान में मिले शॉल से पन्द्रह से बीस गुणा कम होते हैं. आखिर हमें भी तो बुरा लगता है न कि जिस हिन्दी को हमने मुक्तिबोध,नागार्जुन,रेणु को ध्यान में रखकर पढ़-लिख रहे हैं, उसकी अर्थी इतने सादे ढंग से क्यों सजायी जा रही है ?

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