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Channel: हुंकार
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मीडिया को पता नहीं,मरीज के पहले अस्पताल मर चुके हैं ?

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बिहार के छपरा में मिड डे मील से 22 बच्चों की मौत और मधुबनी में दर्जनों बच्चे के बीमार होने की खबर के बीच मेनस्ट्रीम मीडिया की ममता उफान पर है. ममता का ये सागर गति पकड़े इसके पहले सियासत और सिस्टम के टीले से जा टकराती है और फिर सब कांग्रेस-बीजेपी की दालमखनी बनकर रह जाती है. ये सब देखना इतना असह्य और घिनौना लगा कि रहा नहीं गया और लगातार फेसबुक पर स्टेटस अपडेट करता गया. अलग-अलग समय में सरकारी और निजी अस्पतालों को लेकर मेरे अपने अनुभव रहे हैं जिन्हें आपसे टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, साझा करना जरुरी लग रहा है-




1)
रात के दो बजे मेरी मरी हालत देखकर और लगा कि बचने की बहुत ही कम संभावना है, पुष्कर Pushkar Pushp) को समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें? जनवरी की ठंड, मुझे पकड़कर वो खुद भी रोने लगा- तुम्हें कुछ नहीं होगा, तुम्हें कुछ नहीं होने देंगे. अचानक भागकर अपने कमरे में गया और मेट्रो हॉस्पीटल की वो पर्ची ले आया जहां वो पहले गया था. मेट्रो हॉस्पीटल,नोएडा का वैसे बहुत नाम है.
टैक्सी आ गयी और वो हमे लेकर वहां गया. एडमिट हुए. चार घंटे तक कोई डॉक्टर नहीं आया. बस तामझाम और स्लाइन चढ़ाने का काम. बिल करीब नौ हजार बन गए थे तब तक और दुनियाभर की जांच. डॉक्टर का कुछ भी पता नहीं था. पेनकिलर से थोड़ी राहत हुई थी लेकिन ईलाज के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ था. सुबह नौ बजने को आए और तब भी किसी डॉक्टर का अता-पता नहीं देखा तो हारकर हमने तय किया कि अब घर चलते हैं और वहां से तय करेंगे क्या करना है ? हम बस सलाईन और पेनकिलर के करीब नौ हजार रुपये देखकर बेहद उदास,हताश होकर घर वापस हो रहे थे..इस हॉस्पीटल के शहरभर में किऑस्क लगे हैं, विज्ञापन आते हैं. कभी आपने किसी निजी अस्पताल में खासकर ऐसे बड़े अस्पताल की गड़बड़ी की खबर मीडिया में देखी-सुनी है. एक स्तर पर इनकी हालत सरकारी अस्पतालों से भी बदतर होती है लेकिन खबर नहीं बनने पाती. लोगों के जेहन में मीडिया ने बिठा दिया है कि इलाज निजी अस्पताल में ही होते हैं, सरकारी अस्पताल में तो रिपोर्ट तैयार होती है बस. ऐसे में लगातार सरकारी अस्पतालों की आलोचना करके मीडिया निजी अस्पतालों के पक्ष में माहौल ही तैयार करता है.


2)

मेनस्ट्रीम मीडिया ये बहुत पहले मान चुका है कि सरकारी अस्पताल का काम पोस्टमार्टम रिपोर्ट देना और मृत्यु प्रमाण पत्र देना भर है, इलाज करना नहीं. ऐसे में विपदा में जो ममता के सागर पिक्चर ट्यूब से निकलकर हम तक बहते हैं, वो बहुत ही घिनौना लगता है.


3) 

कमाल खान ने श्रवास्ती के पूर्व विधायक भगवती बाबू पर ईमानदारी की मिसाल बताते हुए, गरीबीसे मौत होने को लेकर मार्मिक रिपोर्ट बनायी.जाहिर है रिपोर्ट का एक पक्ष ये बताता है कि कैसे भगवती बाबू ने गरीबी में लेकिन ईमानदारी के साथ जीवन जिया लेकिन दूसरा पक्ष बेहद ही क्रूर है. पहले उन्हें सरकारी अस्पताल में दाखिल किया गया लेकिन बाद में सुधार न होने पर निजी अस्पताल में और उनके पास सिर्फ पांच हजार रुपये थे और पैसे के अभाव में उनकी जान चली गई. भगवती बाबू अचानक नहीं मरे, पर्याप्त वक्त था जिसमें कई लोग आगे आते लेकिन उस सरकारी अस्पताल की कुव्यवस्था को लेकर कोई छानबीन नहीं हुई और न ही उस निजी अस्पताल पर सवाल उठाए गए कि पैसे के आगे उसने कैसे मरीज की जान जाने दे दी ?http://khabar.ndtv.com/video/show/news/282560


4)

मीडिया सर्किल के लोग बड़े शान से बताते हैं फलां को रॉकलैंड में, चिलां को मेदांता में,ढिमकाना को फार्टिस में देखने जाना है या मेको यहां एडमिट होना पड़ा. ऐसे किसी भी अस्पताल का नाम लेते मैं कभी नहीं सुनता जिनकी फुटेज वो चलाते हैं, जिनके विज्ञापन चलाते हैं, वहां का ही नाम लेते हैं. उन्हें पता है कि फुटेज चलाने लायक और इलाज कराने लायक दो अलग-अलग अस्पताल होते हैं. उन्होंने अपने को इस अस्पताल से अलग कर लिया है. शायद ही कभी पलटकर यहां स्टोरी की तलाश में जाते होंगे लेकिन जैसे ही मौत की खबर आती है, सबके भीतर ममता और करुणा का सागर उमड़ पड़ता है. ममता की ये बांध फिर झटके में टूटकर सिस्टम की ओर लपकती है और सारा कुछ कांग्रेस-बीजेपी की दाल-मखनी बनकर रह जाता है. पहले जब भी किसी बड़े व्यक्ति के इलाज होने या मौत होने की खबर आती थी तो राम मनोहर लोहिया, सफदरजंग,एम्स का नाम आता था लेकिन अब मेदांता,रॉकलैंड,फोर्टिस.आपको क्या लगता है, ये सिर्फ नाम बदल जाने का मामला भर है.


5)


मेरे रुम पार्टनर की उंगली कटकर बस अलग नहीं हुई थी, अटककर रह गई थी. हम उन्हें लेकर पहले तो पहुंचे डीयू हेल्थ सेंटर लेकिन उन्होंने सीधे हिन्दूराव भेज दिया. हम वैसे तो हिन्दूराव से पहले कई बार गुजर चुके थे और एक बार एडमिट भी लेकिन हमें पहली बार पता चला कि यहां की क्या हालत है ?
अंदर जो चढ़कर त्वाडी,थारे,मैनु टाइप से बात कर ले रहा हो, उसे पहले एटेंड कर लिया जाता और जो सामान्य तरीके से अपनी बात बताता,कोई पूछने-जाननेवाला नहीं. खैर, खून लगातार बह रहा था और एटेंडेंट ने बताया कि टांके लगेंगे.हम डॉक्टर का इंतजार करने लगे..और इंतजार करते-करते कब एक ऐसे शख्स ने चीनी की बोरी की तरह पार्टनर की उंगल की सिलाई कर दी, पता ही नहीं चला. वो तो जब उनके चीखने की आवाज आयी तो हम अंदर गए और देखा तो वो शख्स खींचकर धागा तोड़ रहा है. हमने कहा, रहने दीजिए.जब हमें पहले पता होता कि आप ही रफ्फूगिरी करोगे तो खुद ही कर लेते.
हिन्दूराव उत्तरी दिल्ली के बेहतरीन सरकारी अस्पतालों में से है.



6)

पप्पू की छत गिरने से परिवार के कुल 6-7 सदस्यों की एक ही साथ मौत हो गई थी. हम भटक रहे थे गुरुतेग बहादुर अस्पताल में. कहीं कोई बतानेवाला नहीं,किसी डॉक्टर की जुबान तक नहीं खुल रही थी. कब पोस्टमार्डम करेंगे, कब रिपोर्ट बनेगी, डेड बॉडी कब परिवारवालों पुलिस को सौंपी जाएगी, कुछ अता-पता नहीं. चारों तरफ कोहराम..आधी रात में हॉस्पीटल के आगे सिर्फ रोने-चीखने की आवाजें.किसी की कोई सुननेवाला नहीं. इस चीख में जो कुछ एप्रेन पहने लोगों की जुबान जो सुनाई देती थी वो सिर्फ- बैन की लौड़़ी..सुबह के छह बज गए.मरे हुए लोगों की डेथ रिपोर्ट तैयार करने में फिर भी सब अस्पष्ट था और बाकी जो मरीज रो-बिलख रहे थे, उनकी कहानी तो अलग ही है. लेकिन इन अस्पतालों की स्टोरी आपको कितनी बार दिखती है. मैक्स,फॉर्टिस,एपोलो के चमकीले विज्ञापनों के आगे इन अस्पतालों पर कितनी बार आपको गंभीरता से कुछ भी जानने-समझने का मौका मिलता है ? नहीं मिलेगा, क्योंकि हर चैनल के किसी न किसी उन चमकीले अस्पतालों से टाइअप होते हैं जिनके विज्ञापन आप स्क्रीन पर देखते हैं और वहां उनका इलाज हो जाता है या नहीं तो मेडीक्लेम है ही. बाकी नीचे स्तर के कर्मचारी मरें तो मरें अपनी बला से.


7)

रात के करीब ढाई बजे थे. हम जीबी पंत अस्पताल में घंटेभर से भटक रहे थे. हम उस शख्स की तलाश में थे जिसे कि जीबी रोड में गोली मारी गई थी. जीबी रोड जाने पर हमें जानकारी मिली थी कि हां ऐसी घटना तो हुई थी, पार्किंग के ठेके को लेकर और वो बंदा इसी अस्पताल में एडमिट होगा. हम भटकते रहे, पुलिस स्टेशन में पता किया. बताया,यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. आखिर में हॉस्पीटल के आगे मेरे साथ कैमरामैन को देखकर एक व्यक्ति ने पूछा- आपलोग इंडिया टीवी से आए हैं. हमने कहा- इंडिया टीवी से तो नहीं लेकिन टीवी से आए हैं..फिर वो शख्स हमे उसके पास ले गया. डॉक्टर जिस हालत में उसकी इलाज कर रहे थे, वो मरीज जैसे जिंदगी लौटने का और डॉक्टर उसके मरने का इंतजार कर रहे थे. स्थिति अब भी कुछ खास बदली नहीं है. हां बेडों की संख्या बढ़ाए जाने के किऑस्क जरुर लग गए हैं. चैनलों को बिहार के अस्पताल अगर जर्जर नजर आ रहे हैं तो देखिए जाकर महानगर,मेट्रो दिल्ली का अस्पताल, आपको लगेगा ही नहीं कि हम अंतिम शरणस्थली माने जानेवाले शहर के अस्पताल में मौजूद हैं. लालवाली-पीलीवाली-नीलीवाली रंगों से,नामों से नहीं अस्पताल में इलाज और दवाएं चल रही हैं..और हंसी आ रही थी अभी न्यूज24 पर रोहिणी के स्कूल की मिड डे मील को लेकर रिपोर्ट देखकर..ठेकेदार बताने में डर से हकला रहा है और रिपोर्टर तब भी स्टैंड के साथ अपनी बात नहीं रख पा रहा है.


8)


कोई 15 दिन पहले अपने एक प्रोफेसर को देखने एम्स जाना हुआ. एम्स घुसते ही एकबारगी आपको पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन और अस्पताल के बीच का फर्क खत्म होता नजर आएगा. लगेगा यहां भी हर 10-15 मिनट में बिहार,यूपी,एमपी से एक ट्रेन आती है और सवारी घर न जाकर यहीं रुक जाते हैं. चीख रहे,कराह रहे लोग, सीमेंट की बोरी बिछाकर लोगों की टूटी-बिखरी आधी गृहस्थी वहीं पड़ी थी. देखकर और उनमे से कुछ से बात करने पर लगा कि बीमार लोग कम सरकार और व्यवस्था ज्यादा है. पटना, बक्सर,छपरा,भटिंडा में बैठे डॉक्टर मरीज की पर्ची पर जैसे ही रेफर्ड टू एम्स लिखते होंगे, मरीज को लगता होगा, बस पर्ची कटाकर अमृत घोंट लेनी है. लेकिन

यहां एक दूसरे नरक का प्रवेश द्वार खुला होता है. आखिर एम्स भी कितनों को संभालें और फिर मरीज बीमार हो तब न, जब पूरा का पूरा देश ही बीमार है तो उसमे एम्स किस हद तक सुधार सकता है ? हमारे रिपोर्टर सुबह से चैनल माइक चमकाकर चार साल-पांच साल के बच्चे से पूछ रहे हैं- रोज यही खाना मिलता है, अस्पताल का हाल दिखा रहे हैं, लेकिन हादसे के बदले हालात पर कितनी रिपोर्टिंग हो रही है इस देश में ? ऐसा लगता है चैनल के भीतर रिपोर्टर की मीटिंग संपादक नहीं यमराज लेते हैं जो सिर्फ और सिर्फ मौत होने पर खबर फॉलोअप करने के आदेश जारी करते हैं. लगभग मैनेज हो चुका मीडिया क्या इन सबके बीच किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है ? क्या जब वो नीतिश कुमार को सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री के ताज से नवाजता है तो इसके पहले वहां के स्कूल,अस्पताल,पुलिस चौकी का जायजा ले चुका होता है ? पूछिए ये सवाल मीडिया से, शायद ही जवाब होंगे उनके पास..तो जब आज उसी चैनल को मिड डे मील खराब, अस्पताल जर्जर, प्रशासन लापरवाह नजर आते हैं तो सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री करार देने के पीछे कौन से मानक काम करते हैं ? आपको बात बुरी लगे तो लगे लेकिन यकीन मानिए इस तरह की घटनाओं में कहीं न कहीं मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना कि वो स्वयं सरकार को बता रहा है..उसने अपने भीतर के विपक्ष को मारकर सरकार के आगे लोटने का काम किया है और आगे भी करेगा.



9)


साल 2008 में हमलोग दस दिनों के लिए तरियानी छपरा,बिहार गए थे. वैसे तो ये मीडिया वर्कशॉप था जिसमे वहां के स्थानीय मुद्दे को लेकर लोग डॉक्यूमेंट्री फिल्में, रिपोर्ट आदि बना रहे थे. मेरा काम वहां के स्कूली बच्चों के बीच स्थानीय मुद्दे को लेकर अखबार निकालने का था और कैसे उसके लिए ये काम करना होगा, ये सब बताने-समझाने का था. लेकिन
भटकते-भटकते हम पहुंचे तरियानी छपरा के उस अस्पताल में जहां पूरे अस्पताल में सिर्फ जानवरों का चारा भरा था. वहां के कुछ दबंग लोगों ने इस अस्पताल को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया था. ये जानते हुए कि पूरे अस्पताल में चारा ही होगा जब नीचे ऐसा है तो..फिर भी हम डेढ़ घंटे तक वहां एक-एक कमरे से गुजरे. प्रसूति गृह,एक्सरे सब कमरे के आगे इस तरह लिखा था लेकिन सब उजाड़ और चारे से भरा. सब देखकर बेहद गुस्सा आया और फिर अचानक आंख में आंसू आ गए और सचमुच बाहर की सीढियों पर बैठकर रोने लग गया.
अगले दिन राकेशजी ( Rakesh Kumar Singh) के साथ कैमरे और बाकी दूसरी चीजें लेकर गए और कोई सात मिनट की एक छोटी सी रिपोर्ट बनायी. तब मेरे पास न तो अपने लैपटॉप थे, न कैमरा और न ही कुछ और..सो सारी चीजें उन्हीं के पास रह गई.
उन्होंने वहां की बहुत सारी तस्वीरें लीं और शायद अभी भी हो. मैंने उनके ब्लॉग हफ्तावार पर बहुत खोजा, मिली नहीं.. उम्मीद है राकेशजी इस स्टेटस को पढ़कर वो रिपोर्ट और तस्वीर साझा करें.
ये प्रसंग मुझे बस इसलिए याद आ गया कि आज चैनलों पर बिहार में अस्पताल की दुर्दशा पर चर्चा हो रही है..ये क्या कोई एक दिन में हुआ है, ये उसी समय से होता आया है जब बिहार को मीडिया प्रूव सुशासन का राज्य बताया जाता रहा है, पहले से तो स्थिति खराब थी ही. 



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