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Channel: हुंकार
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तरियानी छपरा का एक अस्पताल जो चारा गोदाम बनकर रह गया

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तरियानी छपरा, बिहार के उस अस्पताल के आगे काले पत्थर पर बाकायदा रेफरल अस्पताल लिखा था. मतलब एक ऐसा अस्पताल जहां दूसरे छोटे अस्पतालों के मरीज के गंभीर होने पर यहां भेजे जाने और बेहतर इलाज की सुविधा हो. इसका उद्घाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के हाथों हुआ था लेकिन जब हम इस अस्पताल को देखने गए तो उस वक्त नीतिश कुमार की सरकार थी. अखबारों,पत्रिकाओं और यहां तक कि नेशनल टीवी चैनलों पर उनके सुशासन का डंका बज रहा था. लेकिन

इस सुशासन में इतनी खुली जगह और विस्तार के बीच बना कोई अस्पताल इस हालत में भी हो सकता है, इसकी किसी भी हाल में कल्पना नहीं की जा सकती थी. चारों तरफ सिर्फ झाड़ियां और लत्तड. खिड़की के कांच तो छोड़िए, कई फ्रेम तक गायब. हम किसी तरह हॉस्पीटल के अंदर घुसे. अंदर भी जहां-तहां झाड़ियां उगी हुई. लगा हम पहले लोग हैं जो जमाने बाद इस हॉस्पीटल के अंदर आने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं. और लग रहा था जैसे तरियानी छपरा की घनी आबादी के बीच कोई अजूबा तालाश ले रहे हों. लेकिन

जब और अंदर गए तो देखा कि एक-एक करके कई कमरे में पशुओं का चारा यानी पुआल तह लगाकर रखे हुए हैं. हम हर कमरे से गुजरते हुए बाहर लिखे को पढ़ रहे थे- एक्सरे कक्ष, प्रसूति गृह,शल्य चिकित्सा कक्ष आदि. नीचे सारे कमरे से गुजरने के बाद सीढ़ियों से उपर चढ़े. वहां सारे कमरे खाली और बिल्कुल ढहने की स्थिति में थे. कईयों में तो पीपल, नीम और बरगद के पेड़ उग आए थे. दीवारों के प्लास्तर बुरी तरह झड़ गए थे और कमरे के आगे का लिखा भी आधा-अधूरा ही रह गया था. लेकिन शराब की बोतलें, ताश के बिखरे पत्ते,सिगरेट और बीड़ी के टुकड़े देखकर समझते देर नहीं लगी कि ये जगह कुछ लोगों के लिए अड्डे के रुप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. यानी इतने बड़े अस्पताल की इमारत का इस्तेमाल दो ही काम के लिए रह गया था- पशुओं के लिए चारा रखने और सिगरेट,शराब पीने और ताश खेलने के लिए.

इमारत के आसपास कुछ बच्चे अपने पशुओं के साथ नजर आए और हमने उनसे बात करने की कोशिश की. हमलोगों का हुलिया( बड़े-बड़े बाल और बढ़ी दाढ़ी) देखकर तो वे घबरा ही गए और समझ लिया कि ये बाहर के लोग हैं लेकिन उनमे से एक की मां ने बताना शुरु किया- बाबू, इ अस्पताल ठीक से शुरुए नहीं हुआ. बाकी इ है कि लंबे समय तक आगे टेबुल लगाके डॉक्टर साहब बैठते थे लेकिन कोई डॉक्टर इ इलाका में टिकना ही नहीं चाहता है. सबके सब शहर( मुजफ्फरपुर) में ही रहना चाहता है.

दूसरी बार हम राकेशजी( राकेश कुमार सिंह, मीडियानगर के संपादक) और अहमदाबाद से आगे विजेन्द्र के साथ इस अस्पताल में गए. विजेन्द्र ने बाहर से ही कैमरा रोल इन पर किया हुआ था और मैं धीरे-धीरे गुजरते हुए इस अस्पताल के बारे में तत्काल जो लग रहा था, बोलता जा रहा था. विजन्द्र ने इसे शूट करके कुल 8 मिनट की एक छोटी सी रिपोर्ट बनायी थी- ए डेड हॉस्पीटल. कोशिश यही थी कि इसी तरह इस इलाके के बाकी सार्वजनिक संस्थानों पर रिपोर्ट बनायी जाएगी और गांव के मुखिया को दिखाया जाएगा लेकिन ये काम भी अधूरा रह गया. हां हमने मिलकर इन सब चीजों की चर्चा जरुर की और बताया कि देखिए आपके यहां इस अस्पताल की क्या हालत है लेकिन इस पर कोई संतोषजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली.

नीतिश कुमार के सुशासन के बीच आखिर कोई एक अस्पताल जानवरों का चारा रखने और शराबियों-जुआरियों का अड्डा बनकर भला कैसे रह सकता है ? इस सिरे से अगर सोचना शुरु करें तो बहुत संभव है कि ये तरियानी  छपरा के किसी एक अस्पताल का हाल नहीं होगा. हो सकता  है कि वहां इसी तरह चारा नहीं रहते होंगे लेकिन इलाज की व्यवस्था होगी, ये दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. छपरा में मिड डे मील से 22 बच्चों की सही समय पर इलाज न होने से जान जाने की घटना इस आशंका की पुष्टि करती है.

करीब दस दिन रहकर हम तरियानी छपरा से वापस दिल्ली आ गए और जितना हो सका, वहां के स्थानीय लोगों के बीच मीडिय वर्कशॉप किया..लोगों से जो फीडबैक मिले उसमे इतना जरुर था कि गांव में हरकत आ गयी है और आपलोग जो कर रहे हैं, उसकी चर्चा हो रही है. सत्ता पक्ष के लोग थोड़े घबराए हुए भी हैं कि ये लोग आकर क्या कर रहा है ? इसकी कुछ झलक तो हमें मुखिया से बात करते वक्त भी मिल गई थी. बहरहाल,
मैं कभी इस तरह से गांव नहीं गया था और रहा तो बिल्कुल भी नहीं. गांव मेरे लिए सिर्फ प्रेमचंद और रेणु साहित्य को पढ़ने के बाद बनी एक कल्पना भर में था. लेकिन दस दिन बिताने के बाद लगा कि यहां तो मीडिया का कहीं भी दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है. बस कुछ घरों में अखबार आता है औऱ कुछ के घरों में लौकी की लत्तड के बीच छप्पर पर डिश टीवी टंग गए हैं. सड़कें बेहद खराब बल्कि है भी नहीं ठीक से. ऐसे में अगर कोई थोड़ा भी बीमार होता है तो मौत से फासला बहुत ही कम होता होगा.

दिल्ली आने के बाद तरियानी छपरा मन में अटक गया. वहां के लोगों से जो हमारे वर्कशॉप में शामिल हुए थे, बातचीत होती रही और उसी क्रम में वहां कुछ लोगों की हत्या की खबर मिलने लगी. हत्या के पीछे की वजह और तरीके बिल्कुल फिल्म गैंग्स ऑफ बासेपुर की तरह. इधर टीवी पर लगातार नीतिश के चारण में खबरें जारी रहती. बीच-बीच में बिहार के अखबारों के इंटरनेट संस्करण पर नजर दौड़ाता तो सुशासन की कहानी जारी रहती. मीडिया का मन जब इतने से नहीं माना तो एक के बाद एक सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री का खिताब देने लग गए.

पिछले दो साल से तरियानी छपरा के लोगों से संपर्क टूट गया है लेकिन मिड डे मील की खबर जब लगातार टीवी चैनलों पर तैरते देखा तो ये सब फ्लैशबैक की तरह याद आने लगे. फेसबुक पर अपडेट करने के बाद भी लगा कि ऐसे अस्पतालों,इलाकों की अलग से लगातार बात होनी चाहिए. इस सिरे पर खबरें होनी चाहिए कि आखिर क्यों ऐसे इलाके सिर्फ चुनाव और मौत के ही खबर बनते हैं. इधर चार-पांच सालों से डेवलपिंग जर्नलिज्म की एक नयी दूकान शुरु हुई है. इस दूकान से कितना भला हो रहा है अलग बात है लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया पहले से कहीं ज्यादा इत्मिनान हो गया है कि उसका काम खबर के नाम पर डॉक्यूमेंटरी बनाने का नहीं है, ये कम इस डीजे( डेवलपिंग जर्नलिज्म)वाले कर रहे हैं. लेकिन क्या कारण है कि सालभर जब वो इन खबरों को पूरी तरह नजरअंदाज करते हैं लेकिन दुर्घटना के वक्त पत्रकारिता तो छोडिए किसी एनजीओ की तरह हरकत में आ जाते हैं. पत्रकारिता की लंगोट एनजीओ की चड्डी बनकर फिट है बॉस हो जाती है. जाहिर है बच्चे की मौत के बीच ये सवाल अप्रासंगिक लगे क्योंकि हम फौरी घटना,कार्रवाई के अभ्यस्त हो चले हैं लेकिन इस देश में जिन करोड़ों की जान इन वेटिंग बना दी गई है, उस पर भी तो इसी फौरी कार्रवाई के बीच ही रहकर सोचा जाएगा न .

( ये तस्वीर राकेशजी ने मुहैया करायी है और उस 8 मिनट की रिपोर्ट खोजने में भी लगे हैं. उम्मीद है इन्टरनेट की रफ्तार और बिजली की हालत दुरुस्त होते ही हमें भेज देंगे) 


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