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Channel: हुंकार
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देखो मनीषा, मैंने आप पर पोस्ट लिख दी न.

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अबे स्साले ! क्या कर रहा है तू ? भरी अल्सायी दुपहरी में जबकि हम हॉस्टल की कढ़ी-चावल ठांसकर लेटे-लेटे 9x पर जिया जले देख ही रहे थे कि फोन उठाने पर उधर से किसी ने बोला. मन तो किया कि उसी वक्त दो चमाट दूं कि जिस बदतमीजी से बात शुरु की थी. लेकिन आगे कहा-

अबे, मैं बोल रही हूं मनीषा. बेदखल की डायरी. ये ब्लॉगिंग का वो चरम दौर था जब आप किसी से पहले कभी मिले न हों या बातचीत नहीं हुई हो और पहचानने में अटक रहे हों तो वो अपने ब्लॉग का नाम बताते और तब आप कहते- अच्छा, मनीषा..हां बोलिए न, कैसी हैं आप और उधर से जवाब मिलता-

मैं ठीक हूं, भोपाल से दिल्ली आयी हूं. हम मिल सकते हैं ? और तब ब्लॉगर का जो भरत-मिलाप होता कि मत पूछिए. कभी लगता ही नहीं कि हम एक-दूसरे से पहली बार मिल रहे हैं. सबकुछ जाना पहचाना सा. एक-दूसरे की पसंद-नापसंद, खाने से लेकर पढ़ने तक..मना करने का जल्दी सवाल ही नहीं उठता..तो इसी विधान के तहत हमने कहा- हां क्यों नहीं. आप विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पहुंचने से पहले फोन कीजिएगा, मैं आ जाउंगा.

करीब एक घंटे के भीतर मनीषा मेरे ग्वायर हॉल के उसी प्यारे से कमरे( 63) पर थी. जैसा लिखती रही थीं, वैसा ही अंदाज. बिल्कुल बिंदास. पोस्ट पढ़ने के दौरान मैंने अपनी तरफ से नसीहत ठेल दी थी कि धुंआ-धक्कड़ का काम छोड़ दीजिए लेकिन घर आए मेहमान के स्वागत में ऑमलेट के साथ माल रोड़ से क्लासिक लेने चला गया था. सिगरेट पीने से लोगों को अक्सर मना करता हूं लेकिन पिलाने का एक अजीब सा शौक है. मनीषा मेरे कमरे की एक-एक चीजें निहार रही थी और सबसे ज्यादा नजर जाकर अटक गयी थी मेरी किताबों पर..अचानक पूछा- अच्छा, यहां किताब खरीदनी हो तो कहां जाना होगा ? सौभाग्य से तब स्पीक मैके कैंटीन के आगे बुकशॉप की बेहतरीन दूकान मौजूद थी.

मैंने कहा- आप सचमुच जाना चाहती है ? उन्होंने सिगरेट का धुंआ मेरे मुंह पर फेंकते हुए कहा- हां, मैं क्या मजाक कर रही हूं ? पता नहीं, उस अंदाज में ऐसा क्या था कि मुझे बेहद अच्छा लगा. किताबों के प्रति उनका नशा और सिगरेट के धुएं और नशे पर शायद भारी पड़ गया हो. मनीषा जितनी देर मेरे कमरे पर जिस अंदाज में रही, मुझे अपनी बैचमेट के एक-एक करके चेहरे याद आ गए जिनकी पैदाईश दिल्ली में हुई थी, डीयू से ही ग्रेजुएट और एमए थी लेकिन हम लड़कों के हॉस्टल आने के नाम पर अजीब सी मुख मुद्रा कर लेती. उनमें एक खास किस्म का संकोच होता. मनीषा का खुलापन और बिंदास अंदाज बेहद अच्छा लगा. हम जैसे और जिस कपड़े में थे चल लिए उनके साथ आर्टस फैक की बुकशॉप.

बुकशॉप पहुंचते ही मनीषा भूल चुकी थी कि उनके साथ मैं भी हूं. बेतहाशा किताबें देखती-छांटती जा रही थी और दनादन कहे जा रही थी- इसे दे दो भइया. किताबों की खरीदारी कोई साड़ी-ब्लॉउज की खरीदारी नहीं होती कि झोंक में खरीद लो, पसंद न आए तो ननद, देवरानी को टिका दो या फिर देने-लेने के काम आ जाएगी. किताबें खरीदने के लिए एक खास किस्म की समझ होती है. उसके पढ़ने और खरीदने के पहले ही उसके बारे में जानकारी होने/रखने की ललक. मनीषा ने ढेर सारी किताबें खरीदी और कुछ के बारे में कहा कि वो मंगा दें. विनीत तुम अपने पास रख लेना और मुझे भेज देना. किताबों की दुनिया में खोई मनीषा को याद आया कि एक पर्स भी खरीदनी है..तो मतलब अगला पड़ाव कमलानगर.

लड़कियों की दूकान पर पहुंचकर मैं पैसिव नहीं हो जाता और शर्माता तो बिल्कुल भी नहीं. बचपन से दीदीयों के साथ जाते रहने से लेडिज शॉप कभी अटपटा लगा नहीं. लिहाजा, मनीषा पर्स, क्लिस, हेयरबैंड देखने लगी तो किताबों से कहीं ज्यादा उत्साह से बताने लगा- ये लीजिए, अच्छी लगेगी, ये ठीक है, आपको शूट करेगी..छोटी-मोटी चीजों की खरीदारी और उनकी तरफ से तारीफ पाकर कि तुम हम लड़कियों के साथ बहुत ही कम्पटेबल हो, फुलकर कुप्पा हो जाने के बाद गोलगप्पे पर टूट पड़े और तब वापस मनीषा को विश्वविद्यालय मेट्रो जाकर शी ऑफ. पहली बार किसी से मिलना इतना अच्छा होता है क्या और जरा भी न लगे कि हम एक-दूसरे को जानते नही. लिखने की दुनिया इसी मामले में तो खास है कि हम एक हद तक कितना कुछ जान लेते हैं और वो भी तब जब आप फार्मल लेखन न करके ब्लॉगिंग कर रहे हों. बहरहाल

मनीषा वापस भोपाल चली गयी. बुक स्टोरवाले ने दो दिन बाकी किताबें ला दीं और मैंने कई बार मनीषा से भोपाल का पता पूछा. पता नहीं, उन दिनों उनकी दुनिया कैसी बन-बदल रही थी, पता दिया नहीं. कहा- जल्द ही मिलना होगा. इस बीच ये किताबें हॉस्टल के कमरे से निकलकर माल अपार्टमेंट की रैक पर सजी. माल अपार्टमेंट से मयूर विहार 686, फेज-1. वहां से निकलकर वहीं 221, एक साल बाद आउट्रमलाइन की 1589 में और अब इस घर में. चार साल से इस किताब को मैंने पता नहीं कितनी बार अलग किया है कि ये मनीषा की किताबें हैं, इसे उन्हें देनी है और फिर कुछ दिनों बाद मिक्स हो जाती है. कल फिर अलग किया है.

कितनी बार कहा- मनीषा, आपकी किताबें मेरे पास है. कई बार इस बीच मिलना हुआ लेकिन कभी पहले से निर्धारित नहीं, अचानक. मैंने मजाक में कहा भी कि अब देखिए मैं किसी दिन आप पर पोस्ट लिख दूंगा. हम डीयू के हॉस्टलर्स की आदिम आदत बन चुकी है सेमेस्टर के बाद किताबों की सेल्फ नए सिरे से जंचाने की तो दो दिन से लगे हैं इसी में और इसी बीच मनीषा की किताबें. लगा, बहुत मजाक हो गया..अब पोस्ट लिख ही देनी चाहिए.

मुझे पता है, पोस्ट पढ़कर जरूर कहेंगी- अबे ढक्कन, मैं तेरे पास आकर ले लेती यार, क्यों लिख दी पोस्ट तुमने.


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