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Channel: हुंकार
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अच्छा होता, भीतर थोड़ा मां कम होती, हम खुद होते

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तुम तो छौंड़ी ( लड़की ) की तरह छोटी-छोटी बातों पर भी रोने लग जाते हो, हैंडल बिद केयर मटीरियल हो तुम. पागल हो क्या , मैं कहां रो रहा हूं, फोन पर तुम्हें कैसे पता चल जाता है कि मैं रो रहा हूं, नौटंकी..मजे ले रही हो. 
क्यों, तुम जिस पेस में बात करते हो, मुझे अंदाजा नहीं लग जाता है कि तुम्हारी आंखें भर आयी होंगी. उसकी छोड़ो न, मुझे तो नैतिक को बिस्तर पर पड़े देख इस बात पर सोचकर कि अक्षरा पर क्या बीतती होगी, आंखें छलछला जाती है, जगिया ने जिस तरह आनंदी को डिच किया, देखकर मन कचोटने लग जाता है..और तभी टीवी सीरियल पर पढ़ी सारी थीअरि, आंग्स, एमसी रॉबी, कूहन के तर्क थोड़े वक्त के धुंधले हो जाते हैं और मां हावी हो जाती है. बचपन से मां के साथ टीवी और सिनेमा देखते रहने का बड़ा नुकसान ये है कि मैं इसके तमाम तरह के धत्कर्म और व्यावसायिक हितों के समझने के बावजूद देखते वक्त मां हो जाता हूं. चरित्रों के हिसाब से मनोभाव बदलते हैं और उसी तरह से सब चेहरे पर आने-जाने लग जाते हैं. प्लीज, तुम इसे मेरी पर्सनालिटी का हिस्सा मत समझो, "मां सिंड्रोम से शिकार एक लड़के"के रूप में लो. मन करे तो एक रोगी की तरह कहो- इसे मां हो गया है.

किला जीतने जैसी योजना बनानेवाली मेरी दोस्त पिछले चार साल से मिलने की योजना बना रही है कि हम किसी दिन दिनभर के लिए मिलेंगे, खूब गप्पें करेंगे, कॉफी पिएंगे, पुराने दिनों को याद करेंगे और लोगों को भी बुलाएंगे..वो दिन अभी तक आया नहीं लेकिन फोन पर वही सारी बातें होती रहतीं..पता है, अच्छा लगता है तुमसे बात करना, गांव की किसी औरत से बात करने का एहसास होता है, लगता ही नहीं किसी तीस-इक्कतीस साल के लड़के से बात कर रही हूं. मुझसे बात करने के पीछे की वजह जब भी उससे सुनता हूं तो एक सवाल को लेकर बार-बार अटक जाता हूं- मेरे भीतर मेरी मां इतनी गहरी धंस गयी है कि कोई बात करे तो उसे ये भी न लगे कि वो लड़के से बात कर रही है ? मां को मेरे भीतर इतना अधिक नहीं होना था. लगता है मां से 19 साल से दूर रहकर जो कुछ भी किया, वो कुछ भी अलग नहीं बन पाया. मेरे करीब जितने लोग आए, सबने मेरी मां से मिले भी मुझमे उसे ही देखा. ओफ्फ, भीतर मां का इतना अधिक भी क्या चले जाना कि अपनी घिसकर पहचान बनाने की जद्दोजहद का कोई मायने न रह जाए.

मां ने शुरु से अपनी जिंदगी में कुछ सपाट सूत्र पकड़ लिए और उसी को लेकर जीती रही. मसलन, जो होता है अच्छे के लिए होता है. जो जैसा करेगा, विधाता उसको वैसा ही भोगने के लिए छोड़ देता. कोई पेट से सीखकर कुछ नहीं आता है, सब यहीं सीखना होता है, सब आदमी एक तरह का है, किसी की गांड़ में जट्टा नहीं लगा है. मां ने कभी दास कैपिटल नहीं पढ़े, इपीडब्ल्यू के पन्ने नहीं पलटे, न्यू यार्कर शब्द नहीं सुना इसलिए एक हद तक उसे अधिकार है कि वो इसी तरह की सपाट समझ के साथ जीती रहे..और इस समझ के साथ जिंदगी के कितने आंधी तूफान झेल गयी. नाजों से पली, नाना की सबसे प्यारी और अधिकारों के साथ जीनेवाली मां हवेलीनुमा घर के खंड़कर में बदल जानेवाले पापा के घर में उसका कभी दम नहीं घुटा. मैं सोचता हूं कि उसके साथ जिंदगी के ये सपाट सूत्र नहीं होते और हम जैसों की तरह इगो, स्टेटस, इमोशनल क्राइसिस जैसे चमकीले, रेडीमेड भावों में जाकर फंस जाती तो कितनी मुश्किल हो जाती उसके लिए. पिछले पच्चीस साल से जिस मां को देखता आया हूं, लगता है इसका एक हिस्सा भी हमारी जिंदगी में पड़ जाए तो छटपटाकर रह जाएं लेकिन मां, वही एक सपाट सूत्र वाक्य के साथ झेल जाती है- ठाकुरजी के घर देर है, अंधेर नहीं..जिस तरह से सब मिलके सताता है न, दीनानाथ सब देख रहे हैं उपर से.

मां के दीनानाथ, ठाकुरजी( जिसमे कई ब्रांड के देवता एक साथ शामिल हैं, आप कृष्ण की मूर्ति हटाकर साईं बाबा को लगा दें तो वही दीनानाथ हो जाएंगे, वो कहती भी है कि हमको नहीं पता है कि इ लकड़ी-पत्थर के देउता क्या किसी का करेंगे, बाकी आदमी जात का भाव जिंदा रहता है इसी बहाने सो कम है ) के प्रति अगाध प्रेम ने कभी मुझे भक्ति की ओर नहीं खींचा बल्कि उसे चिढाने के लिए इन सबों के साथ खूब छेड़छाड़ किए. चढ़ावे में जहां वो पांच के सिक्के चढ़ाती, मैं उसे रखकर पचास पैसे डाल देता. जहां वो हनुमान की तस्वीर लगाती, बगल में जूही चावला की लगा देता..मां बस इतना कहती- सब तो हमको पागल समझता ही है, झांट भरके तुम भी हमको ऐसा ही समझते हो, हनुमानजी नहीं हैं कि करेजा चीरकर दिखा दें, क्या बीतता है लेकिन इ जान लो, इ सब अपने लिए नहीं करते हैं, तुम्हीं पिल्लू भर के बुतरू के लिए. इतना कहकर वो चूही चावला की तस्वीर पर भी रोली का टीका लगा देती. हंसी तो छूटती भीतर से लेकिन ग्लानिबोध इतना अधिक होता कि मन भारी हो जाता और बस इतना कह पाता- इसको काहे लगाती है, इ तो नाच-गाना करके हम लौंड़ों का चरित्र बर्बाद करती है. मां बस इतना कहती- जे भी करती है, पेट के लिए करती है.तुम्हारी तरह माय-बाप का ही खाके, उसी के लिए कब्र नहीं खोदती है न और तब जूही चावला पर अक्षर छिड़क देती. हिन्दी साहित्य के जो होनकार शोधार्थी सगुण-निर्गुण भक्ति का स्पष्ट विभाजन करते हुए प्रवृत्तियों की जो लिस्ट जारी करते हैं, मां की इस भक्ति के आगे उन्हें झामा मार जाएगा. शायद यही वजह है कि पूजा-पाठ से जबरदस्त चिढ़ होने के बावजूद मां की इस पूजा ने मुझे मां से कभी दूर नहीं किया बल्कि

सैद्धांतिक और प्रगतिशील नजरिए के तहत उसकी कई बातें, आदतें और जीवन के मायने गलत हैं लेकिन हर बात के पीछे एक तर्क मुझे उसकी तरह खींचता रहा. एक खास आकर्षण मां के प्रति बना रहा. पहले से आश्वस्त होता कि इसके लिए भी उसके पास एक तर्क है और उस तर्क के साथ सहमति-असहमति का पुच्छल्ला न भी जोड़े तो सुनने की इच्छा तो बनी ही रहती..

"तो सुने हैं कि तुम्हारे ये जो कृष्णजी हैं, उन पर भी लड़की के साथ जोर-जबरदस्ती का मामला बन गया था, अभी कृष्ण कथा पर एक लेख पढ़ रहे थे तो पता चला."मां पूरे धैर्य से सुनती और जब तक रिएक्ट नहीं करती जब तक कि कोई सस्ती भाषा के प्रयोग शुरु न कर दूं. इ कोई बात हुआ, दुनिया उसको भगवान मानकर पूजता है और उ रहे लड़किए में लसफसाए. अब मां नहीं रूकती-

कृष्ण भगवान तुमरी लड़की भगा के ले गए, उसको छेड़े जो तुम्हारा पेट का पानी नहीं पच रहा है. उसको भक्ति में मन हुआ तो गई..काहे जय श्री कृष्णा टीवी पर आंख गड़ाकर देख रहे थे तब नहीं सूझ रहा था कि कृष्णजी के पीछे कैसे सब चमोकन जैसा गोपी सब सट रही थी, किसी देवी-देउता के बारे में बिना ठीक से जाने खिल्ली नहीं उड़ाना चाहिए. लड़की जात के मन किया तो गई इसमे भगवानजी क्या करें ? चलो, तो इसका मतलब ये हआ कि कल को हम भी किसी लड़की से लव-शव करेंगे तो जात का मामला नहीं फसाओगी न..
मां उसी रौ में बोलती- जब लड़की को दिक्कत नहीं होगा औ तुम्हारा करेजा उसके साथ जुड़ा जाएगा तो हम बूढ़ी आदमी घडीघंट बजावे बीच में पड़ेंगे. जिंदगी तुम दोनों का, देखना अपना. हम सब तो बस मुंहठकुआ( प्रतीक रूप में) रहेंगे.

घोर संघी, भापपाई माहौल में पली-बढ़ी मां के हर बात के पीछे के तर्क, दूसरों को सुनने की अद्भुत क्षमता और उन कर्मकांड़ों के बीच से भी प्रगतिशील रेशे के पनपने की गुंजाईश ने वक्त के बदलते-बढ़ते जाने के बावजूद मेरे आगे कभी कम पढ़ी-लिखी, आउटडेटेड होने का आभास होने नहीं दिया. उसे होली, दीवाली पर फोन करना उत्साहित नहीं करता लेकिन वेलेंटाइन डे की सुबह ही- हैप्पी वेलेंटाइन डे विनीत और मैं उसी तपाक से सेम टू यू कहता हूं और साथ में ये जोड़ते हुए, ये वेलेंटाइन हम जैसे कुपुत्र को विश करने के लिए नहीं होता, जाओ पापा को कहो ओल्ड स्पाइस लगाकर गालों पर जिलेट रेजर सरकाएं ताकि खटारापन छिटक जाए और हां रात में उनके लिए सत्तू की लिट्टी जरुर बनाना. अपने स्तर से वो खुशी, दैनिक जागरण और स्टार प्लस के दम पर उतना अपडेट होने की जरूर कोशिश करती है जिससे कि मुझे लगे कि मेरी मां भी जमाने की चाल को समझती है.

 वो गलत हो सकती है, बस एहसास करा दीजिए आराम से, कन्विंस हो जाएगी. ठीक ही कहते हैं, यही होता है न पढ़ा-लिखा आदमी का अक्कल-बुद्धि. इसका नतीजा ये हुआ है कि हम इस बेहद क्रूर, दुरुह और उलझी-फंसी दुनिया में भी जाने-अनजाने, घोर नास्तिक होने का दावा करते हुए भी मां के सपाट सूत्र वाक्यों के सहारे जीने की कोशिश करने लग जाते हैं. मां से थोड़ा पॉलिश्ड होकर, मसलन घिसेंगे तो चीजें मिलेगी कैसे नहीं, मेहनत करेंगे तो होगा कैसे नहीं. इस सपाट सूत्र वाक्य के बीच मां के ठाकुरजी, दीनानाथ कभी नहीं आते लेकिन नाउम्मीदी के बीच भी यकीन बचा ही रह जाता है..हां जिंदगी के बेहद निजी हिस्से में ये सब अपनाते हुए बुरी तरह लड़खड़ा जाते हैं, मार खा जाते हैं और तब बेहद गुस्सा आता है- तुम मेरे साथ, मेरे भीतर इतनी अधिक क्यों आ गयी मां. मेरे भइया लोग तो ऐसे नहीं हैं. बेहद मैच्योर, प्रैक्टिकल, पैसे और अवसर को जिंदगी का अंतिम सत्य माननेवाले लोग. कायदे से तो मुझे उनसे ज्यादा बड़े शहर में, ज्यादा बड़ी भीड़ के बीच जीना है, तुम मेरे भीतर कम होती तो अच्छा होता.

जिंदगी की आपाधापी, थकान और समय की किल्लत की वजह से खाना बनाने का मन नहीं करता..चायना वॉल, वर्कोज की लीफ पर नजर जाती है, मोबाईल उठाकर ऑर्डर देने का मन बनाता ही हूं कि तुम बीच में आ जाती हो- बाहर का अलाय-बलाय खाने से अच्छा है आदमी घर में माड-भात खा ले, कुछ नहीं तो चार रोटी बनाकर दही के साथ खा ले. दही न हो तो अचार के साथ ही और मैं मशीन की तरह बस वही करने लग जाता हूं...और इसी तरह जिंदगी में कभी हैंगआउट, चिल्लआउट शब्द घुस नहीं पाए. रसोई में होता हूं तो तुम्हारे साथ होता हूं. वॉशिंग मशीन छोड़कर लिनन की शर्ट हाथ से धोते वक्त कपड़े फीचते होते हुए तुम होती हो. किसी से तारीफ और जिस बात के लिए तारीफ सुनता हूं वो तुम्हारे हिस्से चला जाता है. मैं तो कहीं होता ही नहीं हूं. इतना भी क्या गहरे धंस जाना कि जब भी किसी लड़की से दो-चार मुलाकात होती है, बात होती है, सीरियस होता हं, तुम मूल पाठ बनकर हाजिर हो जाती हो, वो लड़की प्रूफ रीडिंग के लिए मौजूद टेक्सट और मैं खुद प्रूफ रीडर.. मुझे प्रूफ रीडर तो नहीं बनना था न मां, तुम तो ये कहकर इत्मिनान हो लेती हो- तुम जिसके साथ खुश रहोगे, हम भी खुश रहेंगे लेकिन भीतर जो धंस गयी हो, वो कितना परेशान करता है मुझे, इसका अंदाजा है तुम्हें. हमारे अस्मितामूलक विमर्श की कैसे बत्ती लग जाती है, इसे समझती हो तुम और तुम मेरे लिए, मेरी पढ़ाई के लिए पूरे घर से पंगे लेती रही, चट्टान तक खड़ी रही, पापा को जल्लाद तक घोषित कर दिया लेकिन मेरे भीतर तुम्हारे धंस जाने से सालों से एक इंडिविजुअल के बनने की कोशिशों का कैसे फलूदा निकलता है, कभी सोचा है इस पर ?

( सोचा था, जिस टूम्बकटू को रोज जीता हूं, जिसका रोज कुछ न कुछ रोज भीतर जाता रहता है, उस पर आज कलेंडरी लेखन न करुं लेकिन एफएम रेडियो और टेलीविजन के बीच फैली दुनिया ऐसा करने कहां देती है ) 



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