दलीलः ये जानते हुए कि किरायेदार का कोई घर नहीं होता, वो माचिस की डिब्बी जैसे कमरे से लेकर कोल्ड स्टोरेज इतनी बड़ी फ्लैट को जिंदगीभर घर के बजाय मकान बोलने के लिए अभिशप्त है, मैं 221, फेज-01,पॉकेट-5,मयूर विहार, अपने पुराने ठिकाने के लिए मकान की जगह घर शब्द का प्रयोग करना चाहता हूं. वो घर जिसके लिए मेरे दोस्तों ने कमरा, मकान या फिर पापा ने डेरा शब्द का जब भी प्रयोग किया, मेरे भीतर कुछ न कुछ चटकता आया था और मैं चीत्कार उठता- नहीं. ये मकान या डेरा नहीं है. ये मेरा घर है. इस घर की दीवारें, दरवाजें और खिड़कियां भले ही मकान-मालिक के हैं, जमीन डीडीए की है लेकिन इसके भीतर की हरकतें, उठनेवाले सपने और पैदा होनेवाली उम्मीदें मेरी है. घर का एकांत जो समय के साथ अकेलेपन,उदासी,हताशा,बेचैनी और देखते ही देखते अवसाद में तब्दील होता चला गया, वो सबके सब मेरे हैं. घर की सारी खिड़कियां मकान-मालिक के थे लेकिन उससे झांकनेवाली नजरें मेरी थी, अखबार के पन्ने पर मेरे दोस्त मिहिर के लिए जो रोशनदान है, वो मेरे लिए खिड़कियां थी जिससे छन-छनकर आनेवाला शोर मुझे अक्सर इंसानों के बीच रहने का एहसास कराता लेकिन शहर-सभ्यता की दीवारें सामाजिक होने से रोक लेती. जिस घर में आनेवाले दर्जनभर से ज्यादा लोगों ने कहा- लगता नहीं कि इसमें तुम अकेले बैचलर रहते हो, लड़की जैसा सजाकर रखते हो. मेरा इस 221 को मकान के बजाय घर कहने के पीछे न तो कोई अतिरिक्त महत्वकांक्षा है और न ही भविष्य में किसी तरह की कानूनी दावेदारी की योजना. इसे आप एक भावुक किरायेदार का पागलपन कहकर बख्श दें लेकिन प्लीज मेरी इस संज्ञा( घर) को प्रॉपर्टी डीलर की चौखट तक घसीटकर न लें जाएं..हमने वो घर छोड़ दिया लेकिन साथ में जो वहां छोड़ आए हैं वो लंबे समय तक इसे मकान कहने से मेरे अपनों को रोकेगी,टोकेगी और मेरे घर के रुप में याद करेगी.
देर रात घर( 221,मयूर विहार) का सारा सामान ट्रक पर लादकर नए ठिकाने पर पहुंचाने के बाद अगली सुबह मैं आखिरी बार इस घर में आया था. बहुत सारे बल्ब, पर्दे की क्लिप, वाशरुम में लगी साबुन की स्टैंड, बेसिन के नीचे लगी स्टैंड और ऐसी ही छोटी-मोटी चीजें रह गयी थी. एमटीएनएल की इंटरनेट सेवा बंद करवानी थी और एक बार सब तरह से देख लेने के बाद केयर-टेकर को चाबी दे देनी थी. मैंने घर का ताला खोला और सीधे अंदर गया. दोनों कमरे और किचन का मुआयना किया. कुछ भी नहीं छूटा था सिवाय बल्ब और किल्प के. दोनों कमरे में बहुत सारे खाली पैकेट, पुरानी मैगजीन और ऐसी ही फालतू चीजें. किचन में छोटे-छोटे खाली डिब्बे जिसमें मां ने पिछले साल अचार दिए थे. मैं धप्प से जमीन पर बैठ गया. हालांकि स्कीनी जींस पहने होने की वजह से बैठने में तकलीफ हो रही थी. मैं थोड़ी देर तक बिल्कुल शांत बैठना चाह रहा था. ऐसे-जैसे कि हमने जिन क्षणों को इस घर में जिया है और जिनको जीने से अक्सर मना करता रहा, दोनों को समेटकर,अपने भीतर भरकर साथ ले चलूं. अभी दस मिनट भी नहीं हुए होंगे कि लगा कोई मुझसे लगातार पूछ रहा हो- कल तो तुम दोस्तों का जत्था लाए थे मदद के लिए. मैंने उस वक्त कुछ पूछा नहीं , अच्छा नहीं लगा लेकिन ये बताओ, तुमने मुझे छोड़ क्यों दिया, पिछले दो सालों से तुम यहां रह रहे थे, मुझसे घर जैसा प्यार किया, अचानक से क्यों ये जतलाकर चल गए कि तुम सिर्फ और सिर्फ किरायेदार थे ? मैं क्या जवाब देता. मैं गाने की पैरॉडी बनाने लग गया था-
तू जागीर है किसी और की, तुझे मानता कोई और है, तेरा हमसफर सिर्फ मैं नहीं, तुझे चाहता हजार है.
मैं किराये पर लगनेवाले मकानों के नसीब पर सीरियसली सोचने लगा. कितने बदनसीब होते हैं ये मकान जिनके मालिक को सिर्फ और सिर्फ महीने में आनेवाले किराये भर से मतलब होता है. बाकी इसकी क्या दशा हो रही है, कहां क्या टूट-बिखर रहा है, इससे कोई मतलब नहीं होता. इसमें हर दो-तीन साल में आनेवाला किरायेदार बड़े शौक से इसे सजाता-संवारता है, दीवारों के पुराने छेद-गढ्ढे भरता है और अपनी सुविधानुसार फिर से गढ्ढे करता है. पत्नी या गर्लफ्रैंड से पूछ-पूछकर, एशियन पेंटस की वेबसाइट पर घंटों सिर खपाकर रंगों का चयन करता है और दीवारें रंगवाता है और फिर खाली करते वक्त दूसरे की पसंद पर इन दीवारों-खिड़कियों को छोड़ जाता है..बदरंग करके चला जाता है. हर बार खाली किए जाने पर प्रॉपर्टी डीलर इसकी दलाली खाता है. किस्त-दर-किस्त ऐसे मकानों की दलाली होती है लेकिन मकान-मालिक एक बार ताकने तक नहीं आता.आखिर 221 के साथ भी तो ऐसा ही हुआ न.
मकान-मालिक एक बार मेरे खाली करने के बाद देखने तक न आया..वो निश्चिंत था कि दीवारें, खिड़कियां,दरवाजे थोड़े ही साथ ले जाएगा..ये बची रहे, किराया आता रहेगा. ऐसे मकानों के नसीब पर सोचते-सोचते मैं कब किरायेदारों की तरफ खिसक गया,पता ही नहीं चला..इन मकानों की दीवारें दर्जनों बार ठुकती है, दीवारों के रंग बदलते हैं, उनमें गर्लफ्रैंड और पत्नी की पसंद और इच्छाएं घुलती है और फिर एकदम से सबकुछ अलग हो जाता है..ये तो वो चीजें हैं जिसे हम देख पाते हैं लेकिन दर्जनों ऐसी चीजें जिसे हम सिर्फ महसूस भर कर सकते हैं.
तू जागीर है किसी और की, तुझे मानता कोई और है, तेरा हमसफर सिर्फ मैं नहीं, तुझे चाहता हजार है.
मैं किराये पर लगनेवाले मकानों के नसीब पर सीरियसली सोचने लगा. कितने बदनसीब होते हैं ये मकान जिनके मालिक को सिर्फ और सिर्फ महीने में आनेवाले किराये भर से मतलब होता है. बाकी इसकी क्या दशा हो रही है, कहां क्या टूट-बिखर रहा है, इससे कोई मतलब नहीं होता. इसमें हर दो-तीन साल में आनेवाला किरायेदार बड़े शौक से इसे सजाता-संवारता है, दीवारों के पुराने छेद-गढ्ढे भरता है और अपनी सुविधानुसार फिर से गढ्ढे करता है. पत्नी या गर्लफ्रैंड से पूछ-पूछकर, एशियन पेंटस की वेबसाइट पर घंटों सिर खपाकर रंगों का चयन करता है और दीवारें रंगवाता है और फिर खाली करते वक्त दूसरे की पसंद पर इन दीवारों-खिड़कियों को छोड़ जाता है..बदरंग करके चला जाता है. हर बार खाली किए जाने पर प्रॉपर्टी डीलर इसकी दलाली खाता है. किस्त-दर-किस्त ऐसे मकानों की दलाली होती है लेकिन मकान-मालिक एक बार ताकने तक नहीं आता.आखिर 221 के साथ भी तो ऐसा ही हुआ न.
मकान-मालिक एक बार मेरे खाली करने के बाद देखने तक न आया..वो निश्चिंत था कि दीवारें, खिड़कियां,दरवाजे थोड़े ही साथ ले जाएगा..ये बची रहे, किराया आता रहेगा. ऐसे मकानों के नसीब पर सोचते-सोचते मैं कब किरायेदारों की तरफ खिसक गया,पता ही नहीं चला..इन मकानों की दीवारें दर्जनों बार ठुकती है, दीवारों के रंग बदलते हैं, उनमें गर्लफ्रैंड और पत्नी की पसंद और इच्छाएं घुलती है और फिर एकदम से सबकुछ अलग हो जाता है..ये तो वो चीजें हैं जिसे हम देख पाते हैं लेकिन दर्जनों ऐसी चीजें जिसे हम सिर्फ महसूस भर कर सकते हैं.
घर का एक-एक हिस्सा किरायेदार की कामनाओं की स्थली बनती है. वो जब तक उस घर में होता है, एक-एक जगह के साथ उसकी यादें जुड़ती है. मसलन मैं शायद ही कभी भूल पाउंगा कि जब कभी अकेलापन महसूस करता था तो कमरे से बाहर निकलता, इस लोभ में कि यथार्थ ने उपर से फिर कुछ गिराया होगा और मैं आवाज दूंगा- अरे यथार्थ, ये तुमने भइया की ड्राइंग बुक फेंक दी..अबकी बार तुम्हें आना होगा, तभी दूंगा. उसकी मम्मा झांकेगी, सॉरी कहेगी, आपको परेशान होना पड़ता है इस शैतान के चक्कर में. अभी किसी को भेजती हूं. उन्हें क्या पता कि ये शैतान यथार्थ ही तो है जो अक्सर एहसास करता है-भइया आप अकेले नहीं हो..मैं कमरे के बाहर की वो खुली जगह कैसे भूल सकता हूं जहां पूर्णिया का मनोज जब दीवान बना रहा था तो मुझे रेणु की कहानी "ठेस" का सिरचन याद आ रहा था. तब मैंने मां को वही बैठकर फोन किया था- मां, सोने में बहुत तकलीफ होती है, जमीन पर. पता नहीं कब चूहे मेरा हाथ-पैर काटकर ले जाए और उधर से मां ने मजे लिए थे- दीवान काहे, थोड़ा और बड़ा पलंग ही बनवा लो..औ सुनो. चूहा-पेचा हाथ-गोड़ नहीं काटेगा, इसका इंतजाम तो कर लिए, लेकिन इ हाथ-गोड़ सलामत रहे, इसके लिए भी कुछ इंतजाम करो..उसके बाद दीदीयों के धड़ाधड़ फोन. विनीत तुम पलंग बनवा रहे हो ? हम जिस समाज और परिवेश से आते हैं, वहां एक बैचलर का पलंग बनवाना स्वाबाविक घटना शायद नहीं थी. तभी तो घर के सारे लोग इतने उत्साहित हो उठे थे इस खबर से..सब याद आएंगे सालों तक.
बैचलर्स किचन, जिसमें कभी दुनियाभर की चीजें बनाने की हमने कच्ची-पक्की कोशिश की थी, वहां अब सिर्फ मां के दिए अचार की खाली बोतलें और विम लिक्विड के डब्बे पड़े थे. इस रसोई में अक्सर दोपहर का खाना बनाते वक्त मैं दीदी और मां को बारी-बारी से फोन करता- आज तुमने दोपहर के खाने में क्या बनाया है ? उसके बाद मैं बताता- दाल,भात,भिंडी की भुजिया, रायता..मां कहती एकदम सुघढ़िन बहुरिया हो गए हो तुम. दीदी कहती- इतना तो हमलोग भी नहीं बनाते. रांची, जमशेदपुर,बोकारो में दीदी लोगों की किचन से मेरा सीधा मुकाबला जारी रहता जिसमें सारी कोशिशें इस बात को लेकर होती कि अगर तुम्हारे भीतर खाना बनाने की इच्छाशक्ति है तो ये मायने नहीं रखता कि तुम बैचलर हो या परिवारवाले? मैं मां को बस एक ही बात का एहसास कराता रहता- हम अकेले में भी उतने ही खुश हैं मां जितने कि भइया लोगों के आगे परोसी गई थाली मिलने पर भी वो अमूमन नहीं होते. किचन में रेडियो सुनते हुए खाना बनाना एक ही साथ अपने बचपन से होते हुए वर्तमान से गुजरने जैसा लगता.
जनसत्ता और तहलका के लिए लिखते वक्त अक्सर मेरे भीतर धुकधुकी बनी रहती. एक तरह की नर्वसनेस और अतिरिक्त सतर्कता. मैं अक्सर कमरा छोड़कर पूरी ग्लास ब्लैकटी या कॉफी लेकर सामने के पार्क में चला जाता. अकेला देख झूले को सहलाता और इधर-उधर देखने के बाद उस पर बैठकर झूलने लगता. बीइए,एनबीए,चैनलों की करतूतों पर दातें पीसता,चाय-कॉफी पीता.अक्षरा, विधि,अफसर बिटिया के चरित्र से नए सीरियलों का मिलान करता. वापस कमरे में आता और धड़ाधड़ टाइप करना शुरु कर देता.
ये 221 दरअसल महज दो कमरे का घर नहीं बल्कि मेरी पूरी एक दुनिया थी जहां कोई भी आता तो मेरी मौजूदगी को महसूस कर सकता था. मेरे साथ कभी चैनल में काम करनेवाली मेरी दोस्त जब पहली बार मेरे घर आयी और दीवार पर "शीला की जवानी" का पतंग टंगा देखा तो ठहाके लगाने लगी- हां, बैठकर यहां तप करो, लेख लिखने में जवानी जियान करो और शीला की जवानी दीवार पर लटकाओ..अरे कभी दीवार से नीचे भी तो किसी को उतरने दो. इस घर को लेकर मैं गुरुर से कह सकता था- यहां मेरी मर्जी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता था. ये अलग बात है कि इन दिनों चूहों ने पांच सौ के पत्ते तक काट दिए थे. ये सब सोचते-सोचते मेरी आंखें भर आयी थी, घुटन होने लगी थी. तेजी से बाहर निकला. देखा-
चील-कौए की तरह लोग जमा हैं. आपने ये मकान खाली कर दिया, कितना दे रहे थे, कब खाली किया, किससे बात करनी होगी लेने के लिए, प्रॉपर्टी डीलर अलग से पैसा लेगा क्या ? उनमें से कई ऐसे भी थे जिनका अपना घर था और वो चाहते थे कि कोई उल्टा-सीधा किरायेदार पड़ोसी न बन जाए. मुझे डीयू हॉस्टल के कमरे खाली होने और उसके पीछे की जानेवाली राजनीति याद आने लगी..मुझसे लोग नंबर मांग रहे थे. अच्छा केयर टेकर नहीं, मकान-मालिक का नंबर नहीं है, क्या पता कमीशन बच जाए. ऐसे सवाल करनेवाले को यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक बार घर लेने के बाद मेरी कभी मकान-मालिक से बात ही नहीं हुई. उसके लिए ये घर उस बेटी की तरह है जिसे एक बार ब्याह देने के बाद चिंता ही नहीं होती कि वो कैसी है, उसके साथ क्या हो रहा है ? समय पर पैसे आ रहे हैं, काफी है.
उनमे से किसी ने नहीं पूछा- अब आप कहां जा रहे हैं,क्यों जा रहे हैं? घर का किराया और कब खाली कर दिया के सवालों के बीच मुझे उनलोगों पर घिन आ रही थी. लग रहा था- जहां किसी ने भी एकबार भी पूछा कि क्यों खाली कर दिया तो कहूं- आपके कारण..आपलोगों ने कभी एहसास नहीं कराया कि हम मनुष्यों के बीच रहते हैं. आपके ठीक बगल में रहनेवाले टीवी एंकर सुशांत सिन्हा को गुंडे-उचक्के लोहे की रॉड से छाती चूरकर चले जाते हैं और आप देखते रह जाते हैं. लेकिन किसी ने पूछा ही नहीं.
चील-कौए की तरह लोग जमा हैं. आपने ये मकान खाली कर दिया, कितना दे रहे थे, कब खाली किया, किससे बात करनी होगी लेने के लिए, प्रॉपर्टी डीलर अलग से पैसा लेगा क्या ? उनमें से कई ऐसे भी थे जिनका अपना घर था और वो चाहते थे कि कोई उल्टा-सीधा किरायेदार पड़ोसी न बन जाए. मुझे डीयू हॉस्टल के कमरे खाली होने और उसके पीछे की जानेवाली राजनीति याद आने लगी..मुझसे लोग नंबर मांग रहे थे. अच्छा केयर टेकर नहीं, मकान-मालिक का नंबर नहीं है, क्या पता कमीशन बच जाए. ऐसे सवाल करनेवाले को यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक बार घर लेने के बाद मेरी कभी मकान-मालिक से बात ही नहीं हुई. उसके लिए ये घर उस बेटी की तरह है जिसे एक बार ब्याह देने के बाद चिंता ही नहीं होती कि वो कैसी है, उसके साथ क्या हो रहा है ? समय पर पैसे आ रहे हैं, काफी है.
उनमे से किसी ने नहीं पूछा- अब आप कहां जा रहे हैं,क्यों जा रहे हैं? घर का किराया और कब खाली कर दिया के सवालों के बीच मुझे उनलोगों पर घिन आ रही थी. लग रहा था- जहां किसी ने भी एकबार भी पूछा कि क्यों खाली कर दिया तो कहूं- आपके कारण..आपलोगों ने कभी एहसास नहीं कराया कि हम मनुष्यों के बीच रहते हैं. आपके ठीक बगल में रहनेवाले टीवी एंकर सुशांत सिन्हा को गुंडे-उचक्के लोहे की रॉड से छाती चूरकर चले जाते हैं और आप देखते रह जाते हैं. लेकिन किसी ने पूछा ही नहीं.
मैं चलने को तैयार था. केयर टेकर बिजली,पानी के मीटर चेक कर रहा था, दरवाजे, खिड़कियां, सेल्फ सबकुछ देख रहा था कि कहीं कुछ तबाही तो नहीं मचायी है और सिक्यूरिटी मनी से कुछ रकम काटने के बहाने टटोल रहा था. कुछ न मिल पाने की स्थिति में आखिर में मनहूस सी अदा के साथ चाबी मांग ली. मैं उसकी नजरों में एक भूतपूर्व किरायेदार था. किराये का मकान देखते और छोड़ते समय हमारी पहचान सिर्फ और सिर्फ किरायेदार की हो जाती है..घर छोड़ते वक्त श्मशान से गुजरने जैसा होता है जहां जाकर हम सिर्फ और सिर्फ इस बात पर सोचने लग जाते हैं कि इतनी जोड़-तोड़ करके जो इंसान दुनियाभर की चीजें जुटाता है, आखिर में सब छोड़ जाता है. किराये के मकान की सजावट को भी तो हम ऐसे ही छोड़ जाते हैं. मिट्टी के लोंदे की तरह ही तो हम एकमात्र पार्थिव शरीर की पहचान लेकर जल जाते हैं, दफन हो जाते हैं. ऐसे में जो पत्रिकाएं,टीवी चैनल और वेबसाइट ब्लॉगर, लेखर,मीडिया समीक्षक..जैसे मेटाफर जोड़कर परिचय कराते हैं,उनके बारे में सोचकर हंसी आने लगी..हम कुछ घंटों के लिए ही सही, सारी पहचान खोकर एकमात्र पहचान जो कि सबसे ज्यादा गहरी होती जा रही थी के साथ खड़े थे- किरायेदार.
जिस केयरटेकर ने इन दो सालों में दसों बार पूछा था- आपकी किताब कब आ रही है, अरे आपको टीवी पर देखा, अरे आप तहलका में लिखते हैं, उसके आगे घूम-फिरकर एक ही सवाल थे- आपने किसी को बताया तो नहीं कि कितने में रह रहे थे क्योंकि हम तो आपको पुराने रेट पर दे दिए थे, अब तो रेट वो रहा नहीं न.? चाबी उसके हाथों में सौंपते हुए मन ही मन सोच रहा था-
बता देना अपने मकान-मालिक को, हमने कुछ नहीं तोड़ा है, कुछ भी चुराकर नहीं ले जा रहे अपने साथ..लेकिन हां, मेरा बहुत कुछ टूटा है, मेरा बहुत कुछ छूटा है..हम उसे चाहकर भी नहीं ले जा सकते, हम अभिशप्त हैं इसे छोड़ने के लिए क्योंकि किरायेदार का कोई घर नहीं होता. घर होने का एहसास भर होता है और हम उस एहसास के बूते ही एक जगह से दूसरी जगह किरायेदार बनकर भी घर शब्द का प्रयोग करते रहेंगे. तुम और तुम्हारा मकान-मालिक कचहरी में हाजिरी लगवाकर भी ऐसा करने से मुझे रोक नहीं सकता. तुम ही क्यों दिल्ली का कोई भी केयरटेकर, प्रॉपर्टी डीलर और मकान-मालिक ऐसा करने से मुझे रोक नहीं सकता. देखना, जहां जा रहा हूं, उस मकान को भी घर कहूंगा, वहां भी अपने सपने बढ़ेंगे,पलेंगे और फिर एक मकान अपने नसीब के गुलजार होने का जश्न मनाएगा.
जिस केयरटेकर ने इन दो सालों में दसों बार पूछा था- आपकी किताब कब आ रही है, अरे आपको टीवी पर देखा, अरे आप तहलका में लिखते हैं, उसके आगे घूम-फिरकर एक ही सवाल थे- आपने किसी को बताया तो नहीं कि कितने में रह रहे थे क्योंकि हम तो आपको पुराने रेट पर दे दिए थे, अब तो रेट वो रहा नहीं न.? चाबी उसके हाथों में सौंपते हुए मन ही मन सोच रहा था-
बता देना अपने मकान-मालिक को, हमने कुछ नहीं तोड़ा है, कुछ भी चुराकर नहीं ले जा रहे अपने साथ..लेकिन हां, मेरा बहुत कुछ टूटा है, मेरा बहुत कुछ छूटा है..हम उसे चाहकर भी नहीं ले जा सकते, हम अभिशप्त हैं इसे छोड़ने के लिए क्योंकि किरायेदार का कोई घर नहीं होता. घर होने का एहसास भर होता है और हम उस एहसास के बूते ही एक जगह से दूसरी जगह किरायेदार बनकर भी घर शब्द का प्रयोग करते रहेंगे. तुम और तुम्हारा मकान-मालिक कचहरी में हाजिरी लगवाकर भी ऐसा करने से मुझे रोक नहीं सकता. तुम ही क्यों दिल्ली का कोई भी केयरटेकर, प्रॉपर्टी डीलर और मकान-मालिक ऐसा करने से मुझे रोक नहीं सकता. देखना, जहां जा रहा हूं, उस मकान को भी घर कहूंगा, वहां भी अपने सपने बढ़ेंगे,पलेंगे और फिर एक मकान अपने नसीब के गुलजार होने का जश्न मनाएगा.