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Channel: हुंकार
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तुमको पैदा करने में हम लड़की जैसा तकलीफ सहे थे

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मां ने मेरे पैदा होने  के बाद के दर्जनों किस्से सुनाए हैं. जब मैं पैदा हुआ तो घर-परिवार में लोगों की क्या प्रतिक्रिया थी,लोग क्या कह रहे थे, मां की खुद की हालत कैसी थी, पापा का बिजनेस तब कैसा चल रहा था और मेरे पैदा होने के बाद उसमें क्या सुधार या गिरावट हुई..और भी बहुत कुछ..लेकिन उसे बिल्कुल ठीक-ठीक याद नहीं कि मेरा जन्म किस तारीख को हुआ. हां भादो का महीना था औ झंड़ा फहराने के बाद ही हुआ था. उसे जब मेरे पैदा होने की ठीक-ठीक तारीख ही याद नहीं तो फिर मैं उसके फोन का इंतजार किस बूते करता..सो जब पहले कभी नहीं किया तो आज भी नहीं.

मां ने मेरे जन्म को लेकर जो दर्जनों किस्से सुनाए हैं, उनमें से दो बहुत गहरे तक याद है. एक तो ये कि मेरे इकलौते चाचा जो कि पापा से बड़े थे, यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं लड़का हूं. खबर सुनते ही कहा था- ऐसे कैसे हो सकता है ? चाचा जिस गुना-गणित के हिसाब से सोच रहे थे, उसमें ये था कि जितने लड़के( 3) उन्हें हैं, उतने ही लड़के मेरे पापा को कैसे हो सकते हैं ? आखिर वो मेरे पापा से बड़े हैं और इस कारण ज्यादा लड़के होने का गुरुर तो बना रहना ही चाहिए न..चाचा मुझे देखने आए थे और मां से कहा था- लड़का कैसे हो गया..दूसरी कि तब मेरी शक्ल भी लड़की बच्ची जैसी ही थी. देखकर जो भी बाहर निकलता, कहता- एकदम लड़की जैसा दिखता है. ये बात उन तक भी पहुंची थी..खैर, चाचा ने जब मेरी मां से सवाल किया- लड़की है कि लड़का तो मेरी मां की हालत ऐसी नहीं थी कि जवाब देती या कुछ कहती ? धोती के टुकड़े को कमर से हटा दिया और चाचा देखकर चले गए. मेरी मां कहती है- हम कुछे बोले नहीं, सीधे उघार के देखा दिए..मां इसके बाद मजे लेकर कहती- तुम्हारा बिल्कुल चूहे जैसा फुन्नू देखकर लजा गए थे और बाहर चले गए.

दूसरा कि मोहल्ले के लड़के जब भी आपस में एक-दूसरे को ललकारते तो कहा करते- है हिम्मत, मां का दूध पिया है तो छूकर तो दिखाओ, हाथ तोड़के हाथे में दे देंगे. इस मां का दूध को लेकर ललकारने की अदा लौंड़ों ने तब के हिन्दी सिनेमा से सीखी होगी. बात-बात में तब के सिनेमा में मां का दूध और उसके कर्ज का जिक्र होता. मां तो स्त्री ही रह गई लेकिन उसके बेटे के भीतर का मर्द इसी दूध से विकसित होता रहा. मैं भी कई बार जोश में छू देता- लड़के धक्का देते और मैं गिर जाता. सब ठहाके लगाते- देखा, बोले थे न कि ये मां का दूध नहीं पिया है.

मां मुझे रसोई लेकर आती और पैरेक्स और अमूल स्प्रे के ुन दर्जनों डब्बे दिखाती जिसमें कि हल्दी,धनिया पाउडर, मिर्च,साबूदाना..होते. ये डब्बे सिर्फ डब्बे भर नहीं थे बल्कि मेरी परवरिश के इतिहास का एक हिस्सा था जिसे मां ने रसोई में जगह दी थी. जब भी गुस्सा होती, उन डब्बों की तरफ इशारा करती और कहती- यही दिन देखने के लिए दू दर्जन से भी जादे डिब्बा घोर-घोर(घोलकर) पिलाए. तब आनंद डेयरी, सेरेलेक और हिन्दुस्तान लीवर जैसी न जाने कितनी कंपनियों की साख दांव पर लग जाती. इन डब्बों में मां का दर्प छिपा था जो वक्त-वेक्त दूसरों के आगे झलक जाता. कूड़ा-कचरा में फेंककर नहीं पैदा किए हैं इसको कि कोई आकर सोंट( बुरी तरह पीटना) दें, एतना डिब्बा पिलाए हैं. ये डिब्बे आज भी मेरी नजरों के आगे नाचते हैं और इनकी ठीक-ठीक संख्या याद करने की कोशिश करता हूं क्योंकि मेरी पैदाईश के इतिहास के पन्ने जैसे हैं.

मां फीड नहीं करा सकती थी, एक तो तब बहुत कमजोर थी और दूसरा कि ऐसा कराना मेरे स्वास्थ्य के लिए भी सही नहीं था. लिहाजा, शुरु से मैं इन डिब्बों के भरोसा ही पलता रहा, बड़ा होता रहा. मां बताती है कि जब तुम बड़े हो गए और हमें दूध तब होता नहीं था और तुम जिद करते तो तुम्हारे मामा हमसे कहते- दीदी मिर्ची लगा लो, खुद ही रोएगा. लेकिन पिल्लुभर के जान के साथ ऐसा करना हमको अभी अच्छा नहीं लगा..तुम जैसे-तैसे बड़े हो गए.

तुम अपने चाचा को फूटी आंख नहीं सुहाते थे क्योंकि तुम पैदा होकर उनका गुमान तोड़ दिए. जितना लड़का उनको था, उतना ही तुम्हारे पापा को भी हो गया और वो ऐसा पसंद नहीं करते थे. पापा को भी तुम पसंद नहीं आए. कमजोर थे, रोते रहते थे, अक्सर बीमार..बहुत परेशान रहते थे तुमको लेकर. एतना गंजन( तकलीफ) हम बेटी पैदा करके भी नहीं भोगे थे जितना कि तुम्हारे वक्त हुआ था. तुमको देखते तो बिना वजह किचकिचा जाते. तबी हम तुम्हारे बड़ा होने पर भी कोशिश करते कि तुम उनके सामने न पड़ो. मां की ये कोशिश मेरे भीतर अपने आप चली आयी थी. मैंने जब होश संभाला और स्कूल जाना शुरु किया, खेलना-बाहर जाना शुरु किया तो कोशिश यही रहती कि उनके सामने न पडूं.

तुम अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे बल्कि घर में सबसे छोटे तो जिसको मौका मिलता तुमको धुकिया ( धम्माधम मारना) देता. कई बार देख लेते तो मना करते, कई बार उसके आगे हंसुआ रख देते कि काटे दू टुकरी कर दो, न रहेगा बांस, न बजेगा बंसुरी..तब तुमको छोड़ देता सब, हसुआ थमाने पर पापा भी छोड़ देते थे तुमको. हम तुमको अक्सर रिवन( लाल या गुलाबी रंग के फीते) से बांधकर चोटी कर देते. जिस कपड़ा का दीदी लोगों का फ्राक सिलाता, उसी से बुशर्ट सिलवा देते, कई बार हम खुद ही सी देते. तुम अपना चुपचाप भखुआ जैसा मेरे पास बैठे रहते. सब स्कूल-दूकान चला जाता और तुम उसी तरह भंसा( रसोई) में बोरा( जूट से बना जिसमें चीना, गेहूं आते थे) पर बैठे रहते. बड़ा हुए तो किसी हालत में हमको छोड़कर स्कूल जाना नहीं चाहते थे. अक्सर पेट, माथा का बहाना बनाकर आ जाते. कई बार तुम सच में बीमार हो गए थे तो मास्टर लोग डरा रहता और जैसे ही तुम बोलते, उ पहुंचवा देते..तुम ऐसे ही बारह ततबीर( जैसे-तैसे, जुगाड़) से बड़ा होते गए.

हमको तो कभी लगता ही नहीं था कि तुम घरघुसरा होने के सिवाय तुम कुछ लिख-पढ़ भी सकोगे..लेकिन सब ठाकुरजी, उपरवाला के किरपा है. उनखे यहां देर है, अंधेर नहीं..देखे कि तुम धीरे-धीरे अपने मन से लिखने-पढ़ने लग गए और उसमें तुमरा मन लग गया..जब-तब दूकान में फंसाने का इ( पापा) कोशिश किए लेकिन फिर समझ गए कि कोई फायदा नहीं है..अब भी जब-तब बोलते हैं कि जब दू-बित्ता( अंगूठा और तर्जनी के बीच की दूरी को एक बित्ता कहते थे, ये मापने का पैमाना भी हुआ करता था) के था, तभी से जिद्दी था लेकिन ऐसा बोलते हुए अंदर से खुश हो जाते हैं. अब अखबारवाला तहलका देने में थोड़ा सा भी देरी करता है तो गाड़ी उठाते हैं औ सीधे मानगो जाकर ले आते हैं. एक-एक चीज पढ़ते हैं तुमरा लिखा हुआ.

पिछले एक साल से मां मेरे इस आड़े-तिरछे बचपन और टीनएज को सिनेमा की तरह रोज याद करती है. क्षितिज के आ जाने के बाद उसे जब भी नहलाती है, खिलाती है, उसकी बदमाशियां देखती है तो जब-तब फोन करके कहती है- एकदम छोटा विनीत है ये..एक-एक आदत तुमरा जैसा है. हंसता भी एकदम तुम्हारी तरह एकदम लखैरा जैसा ही..बस इ है कि तुमसे गोर बहुत जादे है और एकदम लड़की जैसा सुंदर है. लड़की जैसा तो तुम भी थे लेकिन इ और ज्यादा है.हम तो एक ही चीज जानते है की खटोला के बच्चा हमेशा खटोला पर नहीं रहेगा,आगे बढेगा। अरे नहीं मां, वो क्षितिज है, उसकी मां थोड़े ही तुम्हारी तरह गंजन सही थी. तुम भी तब खूब संतरे खाती तो मैं भी बहुत गोरा होता..तो तुम खाती रही दाल-भात और लाल साग..तब न काले हो गए..प्रेग्नेंट लेडिस को संतरा खूब खाना चाहिए, बच्चा गोरा होता है..तू दिल्ली जाके एकदम से गुंड़ा,लखैरा हो गया है, इ सब बात कौन बताता है..कौन क्या, टीवी सीरियल जब शुरु होता है तो हम अपना आंख-कान जैसे बंद कर लेते हैं और घर आते हैं तो दीदी लोग इसके अलावे कौन सा गप्प करती हो..तुम अभी भी हमको भकुआ ही समझती हो..अच्छा, तो तुमको इ सब का भी अक्किल-बुद्धि हो गया है..तो खिलाना खूब ला-लाके संतरा-अनरा, तुमको भी छोटा क्षितिज जैसा होगा.

मैं दिल्ली में अक्सर कॉमरेडनुमा क्रांतिकारी साथियों से टकराता हूं. पूंजीवाद और बाजार का विरोध करते हुए उनका चेहरा झंड़े की तरह लाल तो नहीं होता लेकिन हरी नसें गर्दन पर उभर आती हैं..उन नसों का फिर फिर से पर्दे में जाना तभी संभव हो पाता है जब गले के नीचे जॉनी वाकर, सिग्नेचर या कुछ नहीं तो उसी किंगफिशर की चिल्ड बीयर जाए..मुझे रसोई में करीने से सजे फैरेक्स, सेरेलेक के डिब्बे याद आते हैं, नेस्ले का लोगो याद आता है. घोसले में पड़े अंडे और निगरानी करती चिड़ियां..मैं तब इस यूनीलीवर का उसी दम से विरोध नहीं कर पाता, जिस दम से मेरे साथ किंगफिशर का कर पाते हैं. शायद इसलिए कि हिन्दुस्तान लीवर(तब) का दूध खून बनकर मेरी रगों में दौड़ रहा होता है जिसके गर्म होने की एक सीमा है जबकि उनका किंगफिशर नशा बनकर जिसके गर्म होने और खौलने की कोई सीमा नहीं.ो

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